15.7.11

13.7.11

नंदनी को जब अरमान ने किसी दूसरे लड़के  के साथ बाईक पर घूमते देखा तो उसका मन निराशा से भर गया। उन्हें वह दौर याद आ गया जब नंदनी उनके साथ हाथों में हाथ डालकर घूमा करती थी। कभी जीवन भर एक दूसरे का साथ निभाने की कशमें खाई थी। पर दोनो अलग हुए क्यों? क्या इसके लिए अरमान का व्यवहार जिम्मेदार था? हो सकता है। नंदनी आधुनिक ख्यालों में रची बसी थी। पर अरमान परम्परागत विचारों को आदर्श मानता था। उन्हें  न तो नंदनी का पहनावा पसंद था और न  ही वह नंदनी के उन विचारों को प्रशय देता था जो नंदनी अक्सर अरमान पर थोपना चाहती थी। शायद इन्ही विरोधाभासी विचारों ने दोनों के रिश्तों में कटुता पैदा कर दी थी। नंदनी ने उन बाहों में शरण ले ली जो उन्हें वो सारी सारी चीजे करने की  छूट देता हो। और अरमान? उन्हेंने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया। वो नंदनी को दूर होते हुए देख सकता था पर अपने मूल्यों को नहीं। एक दिन उन्होंने नंदनी को मिलने के लिए बुलाया। और क्या कहा?
"आप जो कर रहे हैं वो सरासर गलत है। पर मैं भी घोर आशावादी प्रवृति का  हूं। आपके  इस व्यवहार में भी मुझे संभावनाओं की जमीन दिखाई दे रही है। यह बात आप भी जानते है कि आपका  व्यवहार मुझे कतई अच्छा नहीं लगेगा। पता नहीं इसके पीछे आपका  मंतव्य क्या है। पर आप ऐसा कर के जाने-अनजाने मेरी जिंदगी पर बड़ा उपकार कर रहे हैं। क्योंकि जब भी मैं आपको किसी दूसरे लड़के के  साथ देखता हूं तो मेरे अन्दर एक अदृश्य शक्ति का  संचार हो जाता है। जीवन में कुछ बनने का जज्बा पैदा हो जाता है। जिंदगी से लडऩे का हौसला मिलता है। मुझे नजरअंदाज करने वाला आपका हर एक कदम मुझे गंभीर जीवन के और समीप ले आता है। मेरा आपसे विनम्र निवेदन है कि आप मेरे साथ एसा व्यवहार जारी रखे। क्योंकि यही मुझे हौसला देती है। हालात से लडऩे के लिए प्रेरित करती है। तो नंदनी जी और जलाईए मुझे। जितना जला सकते है उतना जलाईए। मेरे दिशाहीन जिंदगी को इस जलन की जरूरत है। आपके जलन के इस चलन को मेरा नमन।"

12.7.11

11.7.11


पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं  इतना स्वीकर करें  
छोड़ के अपना घर आंगन गैरों के घर से प्यार करें


आठ इंच की  हील कहीं, कहीं कमर से नीचे पैंट है
खान-पान में पिट्जा बर्गर फिल्मों में जेम्स बांड है
हिंदी भी अब रोने लगी है देख के आज युवाओं को
बात-चीत की शैली में जो अमरिकन एक्सेंट है
 
जरूरी है क्या इन चीजों को खुद से अंगीकार करें
पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं इतना स्वीकार करें

हेड फोन कानों में लगा है जुबां पे इसके गाली है
बाल हैं लंबे, हेयर बेल्ट और कान में इसके बाली है
देख के कैसे पता चले यह लड़का है या लड़की है
चाल चलन भी अजब गजब है चाल भी इसकी निराली है

कहता है कानून हमारा लड़कों से भी प्यार करें
पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं इतना स्वीकार करें 

सरवार दुपट्टा बीत गया अब जींस टॉप की बारी है 
वस्त्र पहनकर पुरुषों का यह दिखती कलयुगी नारी है
सोचो आज की लड़की क्या घर आंगन के काबिल है
रोज-रोज ब्यॉ फ्रेंड बदलना फैशन में अब शामिल है

आधुनिकता को ढाल बनाकर इश्क का क्यूं व्यपार करें
पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं इतना स्वीकार करें


जींस कहीं आगे से फटी पीछे से फटी यह डिस्कोथेक जेनरेशन है
भूल के अपनी भारत मां को  पश्चिम में करते पलायन है
होंठ लाल नाखुन भी बड़े यह दिखती बिल्कुल डायन है
गांधी जयंती याद नहीं पर याद इन्हें वेलेनटायन है
 
भारत की गौरव का कब तक यूं ही हम तिरस्कार करें
पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं इतना स्वीकार करें


मेक-अप से सजा है चेहरा इनका बिन मेकअप सब खाली है
बच के  रहना तुम इनसे यह माल मिलावट वाली है
दर्पण पर एहसान करे श्रृंगार करे यह घंटों में
रंग बदलती गिरगिट की तरह है दिल बदले यह मिनटों में
 
इनसे हासिल होगा नहीं कुछ चाहे हम सौ बार करें
पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं इतना स्वीकार करें

9.7.11

अज्ञात नामक  एक गांव था। इस गांव के विषय में असामान्य यह था कि यहां सभी अनपढ़ लोग रहते थे। सिर्फ चतुर्वेदी जी को छोड़ कर। ऐसा नहीं था कि चतुर्वेदी जी बहुत बड़े विद्वान थे। चूंकि वह गांव के बाकी लोगों से ज्यादा पढ़े लिखे थे, यहां वहां भ्रमण करते रहते थे, इसलिए लोगों की नजर में किसी विद्वान से कम नहीं थे। चतुर्वेदी जी की एक अच्छी आदत थी। जब भी वह कहीं कोई नई चीज देखते, उसे अपनी डायरी में नोट में कर लेते। पर उनकी एक बुरी आदत भी थी। वह नई चीजों का नाम तो लिखते थे पर उसका विवरण नहीं लिखते थे। एक बार वह एक मेला घूमने गए। वहां उसे एक भीमकाय जानवर दिखा। लोगों  से उसने पूछा कि यह क्या है? जवाब आया कि यह हाथी है। अपनी आदत के अनुसार चतुर्वेदी जी ने अपने डायरी में लिख लिया-हाथी। थोड़ी देर घूमने के बाद उसे एक गोलाकार वस्तु दिखाई दी। लोगों से पूछने पर उन्हें पता चला  कि यह जामुन है। चतुर्वेदी जी ने अपनी डायरी मे लिख लिया- जामुन। चतुर्वेदी जी ने ना ही हाथी का विवरण लिखा और न ही जामुन का। हां उन्होंने दोनों के आगे काला शब्द जरूर लिखा था।
इत्तेफाक से कुछ दिनों बाद गांव में एक हाथी आया। गांव वालों के लिए यह एक कौतुहल का विषय बन गया क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि यह जानवर है क्या। लोगों ने सोच कि क्यों न चतुर्वेदी जी के पास चलते है। वह पढ़े लिखे हैं। जगह-जगह घूमते रहते हैं। उन्हें जरूर पता होगा इस जानवर के बारे में। लोगों के बुलावे पर चतुर्वेदी जी हाथी के पास पहुंचे। हाथी को देखने के बाद फौरन उसे याद आया कि इसे पहले कहीं देखा है। तत्काल उन्होंने अपनी डायरी निकाली। डायरी में दो चीजें लिखी थी- हाथी और जामुन। अब चतुर्वेदी जी दुविधा में पड़ गए कि यह हाथी है या जामुन? क्योंकि किसी का विवरण तो उन्होंने लिखा था नहीं। पूरे गांव की भीड़ एकत्र थी और चतुर्वेदी जी को उस जानवर के बारे में बताना था। काफी विचार-विमर्श करन के बाद भी चतुर्वेदी जी नतीजे पर नहीं पहुंच पाए कि यह हाथी है या जामुन। अंतत: उन्होंने गांव वालों को संबोधित करते हुए कहा- "देखिए विद्वानों में बहुत मतभेद है। कोई  इसे हाथी कहता है और कोई इसे जामुन।"
(यह कहानी मैंने कहीं सुनी थी)

3.7.11

सेफिया मुझे माही कह कर पुकारती थी। दरअसल यह नाम मेरी मां का दिया हुआ था। कभी-कभी मुझे भी बड़ा अजीब लगता था। कैसा लड़कियों वाला नाम है यह? और एक बार वैभव ने तो कह भी दिया था कि पंजाबी लड़कियों में माही नाम बेहद प्रचलित है। पर सेफिया को माही नाम बेहद पसंद था। वह हमेशा मुझे इसी नाम से संबोधित करती थी। बाकी दोस्त मेरे माही नाम पर चुटकियां लेने लगते थे, पर सेफिया के संबोधन में आत्मीयता का भाव होता था। वह सम्मानपूर्वक, अधिकारपूर्वक और बेहद गर्व के साथ मुझे इस नाम से संबोधित करती थी। अकेले में तो ठीक था पर जब सेफिया सार्वजनिक स्थलों पर मुझे इस नाम से पुकारती थी तो अटपटा सा लगता था। कभी-कभी मुझे इस बात का एहसास होत था कि मैंने उसे यह बताकर गलती कर दी कि मेरी मां मुझे माही नाम से पुकारती है।
सैफिया के माही संबोधन ने ही उन्हें मेरे समस्त दोस्तों में खास बना दिया था। माही शब्द एक बार कान के पर्दे से टकराकर गूंजने लग जाती थी। खैर एक न एक दिन तो इस गूंज को शांत होना ही था। और शांत  हुआ भी। दो चार दस दिन के लिए नहीं पूरे चार साल के लिए।  मां से बात हो जाती तो यह शब्द सुनने को मिल जाता। वर्ना तो कहीं नहीं। इन चार सालों में माही शब्द कान के पर्दे से टकरायी भले ही हो, पर गूंजी नहीं। समय और परिस्थितियों की पुनरावृत्ति अवश्य होती है। और यह हुआ भी। अब नंदनी मुझे माही कह कर पुकारने लगी। पर नंदनी को माही शब्द के बारे में पता कैसे चला? वैसे ही जैसे सेफिया को पता चला था। नंदनी के संबोधन से मुझे परेशानी तो नहीं थी, पर यह शब्द सुनकर मैं चार साल पीछे चला जाता था। सेफिया का माही और भी गूंजने लगा था। बिल्कुल ध्वनि तरंगों की तरह। पर हुआ वही़...........................ज़ैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि समय और परिस्थितियां स्वंय को दोहराती है। नंदनी का माही भी ज्यादा दिनों तक नहीं चला और एक साल के अंदर ही दम तोड़ गया।
अगर समय और परिस्थिति ने किसी को नहीं बदला तो वो है मेरी मां। सेफिया और नंदनी का संबोधन भले ही बदल गया हो, पर मां का संबोधन आज तक नहीं बदला। नंदनी और सेफिया की तरह और भी आएंगी। पर शायद ही किसी का माही संबोधन मेरी मां की तरह दीर्घकालिक हो।