27.11.12

Arjun Ranatunga addressing a press conference here at Bhopal on Saturday.
मोहम्मद शकील, भोपाल
1996 में अपने प्रेरणादाई नेतृत्व से श्रीलंका को विश्व कप दिलाने वाले कप्तान और वर्तमान में सांसद अजरुन रणतुंगा ने आईपीएल को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि इससे क्रिकेटर नहीं कसाई निकल रहे हैं। मालूम हो कि शनिवार को रणतुंगा अपने सांची भ्रमण के दौरान भोपाल में आयोजित एक कार्यक्रम में शिकरत की।
कार्यक्रम से इतर उन्होंने कहा कि आईपीएल क्रिकेट नहीं बल्कि मनोरंजन मात्र रह गया है। यहां कलात्मकता का जरा भी ध्यान नहीं रखा जाता और खिलाड़ी आंख बंद कर बस बल्ला घुमाते रहते हैं। उन्हें तकनीक से कोई लेनादेना नहीं होता। आईपीएल उन लोगों के लिए है जो क्रिकेट की समझ नहीं रखते। जो क्रिकेट जैसे कलात्मक खेल को समझते हैं वह कभी भी इस छोटे संस्करण को पसंद नहीं करेंगे। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि आईपीएल जैसे टूर्नामेंट का नुकसान विश्व क्रिकेट को भी उठाना पड़ रहा है। खिलाड़ी अब अपने देश के बजाय आईपीएल में खेलना पसंद कर रहे हैं। आईपीएल के कारण अंतरराष्ट्रीय दौरे रद्द हो रहे हैं जो क्रिकेट के गौरवशाली इतिहास के लिए बेहद खतरनाक है। रणतुंगा यहीं नहीं रुके और उन्होंने आईसीसी पर निशाना साधते हुए कहा कि वह अमीर क्रिकेट बोर्ड के हाथों की कठपुतली बनकर रह गई। उन्होंने बीसीसीआई का नाम लिए बगैर कहा कि अमीर बोर्ड के आगे आईसीसी बेबस नजर आती है।

मैं भाग्यशाली हूं कि मेरी बीवी गुस्सैल नहीं है

एक सवाल के जवाब में रणतुंगा ने हंसते हुए कहा कि मैं खुद को भाग्यशाली समझता हूं कि मेरी बीवी गुस्सैल नहीं है। मेरी बीवी बेहद शांत प्रवृत्ति की है। उल्लेखनीय है कि सचिन तेंदुलकर ने एक कार्यक्रम में कहा था कि गुस्साई बीवी तूफानी गेंदबाज से भी ज्यादा खतरनाक होती है।

10.10.12


ढाक के तीन पात। फिर वही कहानी। सुपर-8 में पहुंचना बड़ी बात नहीं। वजह, हर ग्रुप में एक कमजोर टीम होती है। तारीफ तो तब है जब सेमीफाइनल में पहुंचें। भारतीय टीम ने सुपर-8 से बाहर होने की हैट्रिक पूरी की। बार-बार, हर बार वही कहानी। पहले हार कर बाहर हुए, इस बार जीत कर भी बाहर हो गए। जाहिर है, कहीं न कहीं, कुछ न कुछ कमी तो है। खिलाड़ी बदलो, कप्तान बदलो, युवाओं को ज्यादा मौका दो, चाहे कुछ भी करो। अब भारतीय क्रिकेटप्रेमी बदलाव चाहते हैं।

मोहम्मद शकील
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भारत को लक्ष्य मिला कि वह दक्षिण अफ्रीका को 121 से पहले रोक ले तो उन्हें समीफाइनल में जगह मिल जाएगी। भारत में क्रिकेट के चाहने वालों ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी। उन्हें पूरा विश्वास था कि भारत दक्षिण अफ्रीका को 121 से पहले रोक लेगा। उनका यह विश्वास तब और भी पुख्ता हो गया जब पहले ही ओवर में हाशिम अमला पवेलियन लौट गए। नियमित अंतराल पर विकेट गिरते रहे और भारतीयों की उम्मीदें परवान चढ़ने लगीं। पर उस रात फॉफ डू प्लेसिस भारत के लिए विलेन बनकर सामने आए। 38 गेंदो पर 65 रन ठोक डाले। जब उनका विकेट मिला तब तक बहुत देर हो चुकी थी। रॉबिन पीटरसन ने जैसे ही एक रन लेकर स्कोर 122 किया, भारत में सन्नाटा पसर गया। कोहली और रोहित शर्मा आंसू नहीं रोक पाए। क्रिकेट इतिहास में यह दर्ज होगा कि भारत ने दक्षिण अफ्रीका को एक रन से हराया। पर एक ऐसी जीत जिन्होंने विजेता होने का भाव पैदा नहीं किया।
टी-20 विश्व कप में लगातार तीसरी बार भारत की दुर्गति हुई। 2011 विश्व कप जीतने के बाद भारत का प्रदर्शन निरंतर गिरता चला गया है। अब सवाल उठना तो लाजमी है। बोर्ड के सामने चुनौती भी है और अवसर भी कि वह भारतीय क्रिकेट के हित में कुछ कठोर निर्णय लें। संदीप पाटिल की अध्यक्षता वाली नई चयन समिति को तय करना होगा कि वे मौजूदा टी-20 टीम में आमूलचूक बदलाव चाहते हैं या कुछ सीनियर खिलाड़ियों को क्रमबद्ध तरीके से विदाई देना चाहेंगे।
फिटनेस और चयन
इसे आप क्या कहेंगे कि श्रीकांत की अगुवाई वाली चयन समिति पर लगातार सवाल उठे। विश्व कप भी इससे अछूता नहीं रहा। भारत के प्रदर्शन को इनसे भी जोड़कर देखा जा सकता है। कैंसर से उबर कर युवराज ने वापसी की। मीडिया में युवराज की वापसी को भावनात्मक रूप से ऐसे पेश किया गया मानों वह जीत और हार की दीवार हों। युवराज का प्रदर्शन भले ही खराब न रहा हो पर युवराज को अभी पूरी तरह ़फिट होने में समय लगेगा। युवराज की वापसी को भावनाओं से जोड़कर देखा गया और उन्हें विश्व कप टीम का अभिन्न अंग माना गया। सच्चाई तो यह है कि मैच भावनाओं से नहीं, फिटनेस और प्रदर्शन से जाता जाता है।  जहीर खान का भी हाल वैसा ही है। अपने चार ओवर फेंकने के बाद जहीर मैदान पर धीमे पड़ गए। सहवाग कितने ़फिट हैं और कितनी गंभीरता से बल्लेबाजी कर पाते हैं, इसकी भी समीक्षा होनी चाहिए। अगर गंभीर का खराब फार्म पिछले एक साल से जारी है तो क्या उन्हें कुछ समय बाहर बैठ कर घरेलू क्रिकेट नहीं खेलना चाहिए।  पीयूष चावला के बजाय किसी और युवा स्पिनर को टीम में जगह क्यों नहीं दी गई। क्यों आईपीएल में रनों का अंबार लगाने वाले अजिंक्य रैहाणो भारतीय टीम में नहीं दिखे। ऐसी क्या मजबूरी है कि कप्तान धोनी का झुकाव बालाजी के प्रति हो ही जाता है। क्या इंग्लैंड के बल्लेबाजों को धाराशाई करने वाले भज्जी को भी अश्विन के बराबर मौके नहीं मिलने चाहिए थे। आखिर रोहित शर्मा में ऐसी क्या खासियत है कि औसत प्रदर्शन (5 मैच, 82 रन) के बाद भी उन्हें अंतिम एकादस में शामिल किया गया। आखिर उनकी जगह मनोज तिवारी को क्यों नहीं आजमाया गया।

बदिकस्मती: किस्तम से नहीं जीती जाती वर्ल्ड कप
विश्व कप में भारत के अभियान का मूल्यांकन करने पर जेहन में सबसे पहले गूंजने वाला शब्द है बदकिस्मती। देखा जाए तो भारतीय टीम उतना भी बुरा नहीं खेली। टीम ने इंग्लैंड को हराया, पाकिस्तान को हराया और दक्षिण अफ्रीका को भी शिकस्त दी। कुल पांच मैचों में से 4 में जीत दर्ज की। फिर भी टीम सेमीफाइनल में नहीं पहुंच पाई। वहीं वेस्टइंडीज ने 5 मैचों में सिर्फ दो जीत दर्ज कर सेमीफाइनल में पहुंची। इन आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि किस्मत ने भारत का साथ नहीं दिया। लेकिन बदिकस्मती को भुलाकर थोड़ी दूरिदर्शता भी जरूरी है।  विश्व कप जैसे बड़े टूर्नामेंट किस्मत के सहारे नहीं जीता जाता। सबको पता था कि सुपर आठ में भारत ग्रुप ऑफ डेथ में है, जहां नेट रन रेट से लेकर एक-एक रन बाद में बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाएंगे। इसके बावजूद भारत ने गणित के तमाम पहलूओं पर विचार नहीं किया। जब पाकिस्तान के खिलाफ जीत पक्की हो गई थी तो टीम के उप-कप्तान विराट कोहली और युवराज को जल्दी जीत का लक्ष्य भेदना चाहिए था। पर दोनों ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। यानी कमियां सिर्फ खिलाड़ियों के स्तर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि रणनीति बनाने में भी भारत विफल रहा।
हार के बाद कमियों को निकालना सबसे आसान काम है। खेल की रिपोर्टिग करने से भी ज्यादा सरल। पर कमियां निकालना भी जरूरी है, ताकि आगे चलकर इसे सुधारा जा सके। इस समय भारतीय टीम में चैंपियन जैसी कोई बात नहीं रह गई है। समय की मांग यही कि बदलाव भरे कुछ कठोर फैसले लिए जाएं। हर टीम बदलाव के दौर से गुजरी है। आस्ट्रेलिया का उदाहरण सबसे ताजा है। रिकी पोंटिंग की अगुवाई में कंगारूओं ने क्रिकेट पर एकक्षत्र राज किया। आज आस्ट्रेलिया की टीम कितनी बदल चुकी है। इस विश्व कप में खेलने वाली आस्ट्रेलियाई टीम में न ब्रेट ली थे, न मिशेल जॉनसन और न ही माईकल क्लार्क। भारतीय क्रिकेट में यह बदलाव का सबसे सही समय है, ताकि आने वाली पीढ़ी को क्रिकेट की यह गौरवशाली विरासत सही सलामत सौंपी जा सके।

विश्व चैंपियन बनने के बाद से लगातार गिरी है शाख
भारतीय टीम ने 2011 में एकदिवसीय का विश्व कप जीता। पर इसके बाद से टीम लगातार रसातल की ओर जा रही है। इंग्लैंड दौरे पर टीम का पूरी तरह से सूपड़ा साफ हो गया। टेस्ट, वनडे और टी-20 के सभी मैच गंवाए। इसके बाद आस्ट्रेलिया दौरे पर भी टीम ने 4 टेस्ट गंवा दिए। वहीं आस्ट्रलिया में हुई त्रिकोणीय सीरीज में भारत फाइनल में पहुंचने में नाकाम रहा। एशिया कप में भारत बंग्लादेश से हार कर खिताब की दौड़ से बाहर हो गया। और अब एक बार फिर टी-20 विश्व कप के सेमीफाइनल में नहीं पहुंच पाए।  इस दौरान भारत सिर्फ वेस्टइंडीज और न्यूजीलैंड जैसे कमजोर टीम के विरुद्ध ही सफलता पाने में कामयाब रहा। अगर टीम का प्रदर्शन लगातार गिर रहा है तो इसकी कोई न कोई वजह अवश्य होगी। इन वजहों को ढूंढने और उसे दूर करने की चुनौती नए चनकर्ताओं के सामने रहेगी।

..तो पाकिस्तान के पास ऐसी क्या रणनीति है?
भारत और पाकिस्तान का क्रिकेट इतिहास समकालीन ही कहा जाएगा। पिछले कुछ वर्षो में पाकिस्तानी क्रिकेट काफी उथल-पुथल वाले दौर से गुजरी है। टीम पर मैच फिक्सिंग का कलंक लगा और खिलाड़ी प्रतिबंधित हुए। वहीं 2008 में श्रीलंका टीम पर हुए हमले के बाद किसी भी देश ने पाकिस्तान का दौरा करने से इंकार कर दिया। क्रिकेट की बाकी दुनिया से पाकिस्तान पूरी तरह अलग-थलग हो गया। मुंबई हमले के बाद भारत के साथ भी उनके क्रिकेट संबंध बाधित हुए। उन्हें आईपीएल से भी बेदखल कर दिया गया। इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद पाकिस्तान अब तक हुए टी-20 विश्व कप के चारों संस्करण के फाइनल में पहुंचा है। दो बार फाइनल का सफर तय किया और एक बार चैंपियन रहा है। दूसरी ओर भारतीय क्रिकेट के साथ काफी समय से सबकुछ ठीक-ठाक रहा है। आईपीएल के दौरान भारतीय खिलाड़ियों का पराक्रम देखते ही बनता है। पर पता नहीं जब देश के लिए खेलते हैं तो बत्ती क्यों गुल हो जाती है। यहां पाकिस्तान का उदाहरण देने का मतलब बस इतना है कि जब वे इनती विकट परिस्थितियों के बावजूद अपनी क्रिकेट को पटरी पर रखे हुए है, तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते। हमारे पास कमी किसी भी चीज की नहीं है। न प्रतिभा की न पैसे की। बस जरूरत है तो सिर्फ सटीक रणनीति की।

9.10.12


कभी अन्य टीमें वेस्टइंडीज के आसपास भी नहीं फटकती थी। एक दौर था जब क्लाइव लॉयड, विव रिचर्ड, डेसमन हेंस, गार्डन ग्रीनीज विश्व के गेंदबाजों के लिए सिरदर्द बने। वहीं मालकॉल्म मार्शल और माइकल होल्डिंग बल्लेबाजों के लिए आतंक का पर्याय। बाद में इनकी परंपरा को कार्ल हूपर, ब्रायन लारा और कर्टनी वाल्स से बखूबी निभाया पर टीम में 70-80 के दशक वाला पराक्रम नहीं दिख रहा था। धीरे-धीरे स्थिति और बिगड़ती गई और आंतरिक कलह से टीम का बंटाधार हो गया। कभी क्रिकेट का बादशाह रहे वेस्टइंडीज की हालत प्यादे के जैसी हो गई। देशवासियों ने टीम से उम्मीदें बांधना ही छोड़ दिया। ऐसे मुश्किल हालात में मिली यह जीत कैरेबियाई क्रिकेट के खोए रुतबे को फिर से हासिल करने की दिशा में महती भूमिका निभाएगी।
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मोहम्मद शकील
वेस्टइंडीज के जश्न मनाने के तरीके को देख कर ही पता चल रहा था कि उपलब्धि कितनी बड़ी है। उपलब्धि वास्तव में बड़ी थी। वेस्टइंडीज क्रिकेट की एक पूरी पीढ़ी ने इस पल के लिए इंतजार किया। आखिरी बार वेस्टइंडीज ने 1979 में क्लाइव लायड के नेतृत्व में एकदिवसीय विश्व कप जीता था। संयोग देखिए, तब वर्तमान टीम को कोई खिलाड़ी पैदा भी नहीं हुआ था। वेस्टइंडीज 1983 में आखिरी बार विश्व कप के फाइनल में पहुंची थी। इसके बाद से 7 एकदिवसीय विश्व कप और 3 ट्वेंटी-20 विश्व कप में वेस्टइंडीज खिताबी से कोसों दूर रहा। पर इस बार टीम ने डेरेन सैमी की प्रेरणादाई अगुवाई में खिताब जीतकर खुद को महान कप्तान क्लाइव लायड की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया।
टीम के कप्तान डैरेन सामी को विंडीज टीम की कमान उस समय मिली थी जब करार के चलते सभी सीनियर खिलाड़ियों को टीम से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। वेस्टइंडीज में उस वक्त ज्यादातर खिलाड़ी नए आए थे और जब डेरेन सैमी को इसकी कप्तानी दी गई तो वह इंडीज के बी-टीम के कप्तान कहलाए। इस बी- टीम का सफर बहुत ही मुशिकल था। बांग्लादेश ने वेस्टइंडीज में आकर उसको वनडे में 3-0 से और टेस्ट में 2-0 से मात दी। इसके बाद भी बोर्ड और खिलाड़ियों का मनमुटाव लंबे समय तक चला। चैंपियंस ट्रॉफी में भी वेस्टइंडीज का यह कप्तान अपनी दोयम दर्जे की टीम के साथ उतरे थे। जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे टीम के खिलाड़ियों को अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट का अनुभव होता गया। रवि रामपाल, कीरोन पोलार्ड, केमर रोच, सुनील नरेन, डेरेन ब्रेवो अपनी पहचान बनाने लगे। वहीं बोर्ड ने भी कुछ सीनियर खिलाड़ियों को टीम में जगह देने का मन बना लिया। किसने सोचा था कि बी टीम का कप्तान कहलाए जाने वाले डेरेन सैमी एक दिन वेस्टइंडीज को उनका खोया गौरव वापस दिला देगा।
विश्व कप में हिस्सा लेने श्रीलंका पहुंची वेस्टइंडीज टीम को छुपा रुस्तम तो माना गया, पर यह टीम खिताब उड़ा ले जाएगी, इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। टीम की सफलता में कप्तान सैमी का महत्वपूर्ण योगादान रहा। टीम को एक सूत्र में बांधने का काम उन्होंने बखूबी किया। विश्व कप में उनका रिकार्ड भले ही ज्यादा प्रभावी न रहा हो पर टूर्नामेंट में उन्होंने अहम मौकों पर विकेट निकाले और कुछ बेशकीमती रन भी बनाए। फाइनल में उन्होंने एंजोलो मैथ्यूज का विकेट लिया, जिसके बाद से श्रीलंका की पारी बुरी तरह ढह गई। साथ ही सैमी द्वारा बनाए गए 15 गेंद पर 26 रन ने अंत में हार-जीत का अंतर पैदा किया। रोचक बात यह है कि 1992 के बाद यह पहला मौका है कि किसी तेज गेंदबाज कप्तान ने विश्व कप जीता हो। अगर डेरेन सैमी को वेस्टइंडीज क्रिकेट का मसीहा कहा जाए तो गलत नहीं होगा। कैरिबियाई क्रि केट की कायापलट करने वाले सैमी से आने वाले दिनों में उम्मीदें और भी बढ़ गईं है।
वेस्टइंडीज ने यह विश्व कप ऐसे समय में जीता है जब क्रिकेट का गढ़ रहे वेस्टइंडीज में ही क्रिकेट दम तोड़ रही थी। एक के बाद एक हार से क्रिकेट की लोकप्रियता खटाई में पड़ रही थी। समर्थकों ने भी कैरेबियाई क्रिकेट को चुका हुआ मान लिया और दूसरे खेलों की तरफ आकर्षित होने लगे। लंदन ओलंपिक में धावकों के शानदार प्रदर्शन ने क्रिकेट की लोकप्रियता पर करारे प्रहार किए। आश्चर्य की बात तो यह है कि वहां बास्केटबॉल लोकप्रियता के मामले में क्रिकेट से आगे निकल गया। ऐसे में विश्व कप की यह जीत परिस्थितियों को काफी हद तक बदल देगी। फिर से लोग क्रिकेट पर भरोसा करेंगे। लगभग मृतप्राय हो चुकी कैरेबियाई क्रिकेट एक बार फिर कुलांचे भरेगा। सैमी ने वेस्टइंडीज क्रिकेट को एक नई जिंदगी दी है। जरा सोचिए वेस्टइंडीज टीम को विश्व चैंपियन बनते देख क्लाइव लॉयड को कितना सुकून मिल रहा होगा।

18.9.12




लगता है हॉकी के गढ़ में ही हॉकी की पूछ-परख नहीं है। भोपाल ने देश को एक से बढ़कर एक हॉकी खिलाड़ी दिए हैं, हॉकी का इतिहास बेहद समृद्ध रहा है, भोपालवासियों का हॉकी के साथ भावनात्मक बंधन बेहद शसक्त है, यहां हॉकी दिवानगी नहीं बल्कि जुनून है, इसके बावजूद भोपाल फ्रेंचाइजी के लिए कोई आगे नहीं आ रहा..

 मोहम्मद शकील, भोपाल
शाम के साथ बजते ही पुल बोगदा से ऐशबाग स्टेडियम की सड़कों पर गहमागहमी। दुधिया रौशनी में नहाए स्टेडियम से आसमान में दूर तक उठती रौशनी लोगों को स्टेडियम में आने का मूक निमंत्रण देती थी। हर गोल पर ‘दे घुमा के..’ की धुन पर स्टेडियम में थिरकते दर्शक भोपाल को हॉकी की नर्सरी होने का अहसास दिलाते थे। यह नजारा हुआ करता था विश्व सीरीज हॉकी के दौरान जब भोपाल बादशाह अपने घरेलू मैदान पर खेला करती थी। लोगों को उम्मीद थी कि हॉकी इंडिया द्वारा शुरू हो रहे हॉकी इंडिया लीग में भोपाल की टीम जरूर नजर आएगी। ऐसा लगता है कि भोपालवासियों की इस उम्मीद को पंख नहीं लग पाएंगे।
अगले साल जनवरी में होने वाले बहुप्रतीक्षित हॉकी इंडिया लीग (एचआईएल) में भोपाल फ्रेंचाइजी आधारित टीम के दिखने की संभावना बेहद धुंधला गई है। हॉकी इंडिया द्वारा आयोजित इस लीग में छह शहरों की फ्रेंचाइजी आधारित कुल छह टीमें हिस्सा लेंगी। इनमें से 4 की घोषणा हॉकी इंडिया द्वारा कर दी गई है। ये है- लखनऊ, रांची, पंजाब और दिल्ली। हॉकी इंडिया के विश्वस्त सूत्रों की माने तो पांचवीं टीम चेन्नई भी तय मानी जा रही है। यानी अब सिर्फ एक टीम बची है और भोपाल, बेंगलुरू और मुंबई के बीच इस एक स्थान के लिए मुकाबला है।

बेंगलुरू और मुंबई का पलड़ा भारी
निश्चित रूप से फ्रेंचाइजी के लिए बेंगलुरू और मुंबई पहली पसंद होगा। बेंगलुरू में हॉकी का बेहतरीन कल्चर है। साथ ही राष्ट्रीय टीम के अधिकांश कैंप यहीं लगते है। वहीं मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है और लोकप्रियता की दृष्टि से मुंबई को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यानी प्रस्तावित हॉकी इंडिया लीग में भोपाल नाम से कोई टीम नजर आएगी, इस पर संशय है। उधर भोपाल फ्रेंचाइजी पर हॉकी इंडिया के अधिकारियों का कहना है कि भोपाल स्वंय इस लीग में भाग लेने को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं है।

..तो मिल सकती है भोपाल को जगह
भोपाल को हॉकी की नर्सरी होने का गौरव प्राप्त है। इसकी एक बानगी हमें विश्व सीरीज हॉकी में देखने को मिली थी। इसमें भोपाल बादशाह की टीम खेली थी। आंकड़े यह बताते हैं कि विश्व सीरीज हॉकी में बाकी शहरों की तुलना में भोपाल में सबसे ज्यादा दर्शक उमड़े थे। ऐसे में हॉकी इंडिया के लिए भी भोपाल को नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा। सूत्रों की माने तो भोपाल आधारित फ्रेंचाइजी को स्थान देने के लिए टीमों की संख्या भी बढ़ाई जा सकती है। पर इसके लिए जरूरी है कि भोपाल फ्रेंचाइजी के लिए कोई आगे आए।

भोपाल का न होना दुर्भाग्यपूर्ण: जलालुद्दीन
नवगठित संगठन हॉकी भोपाल के सचिव सैय्यद जलालुद्दीन रिजवी का कहना है कि यदि प्रस्तावित लीग में भोपाल की टीम नजर नहीं आती है तो यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा। भोपाल में हॉकी का माहौल है और लोगों को काफी उम्मीदें थी। यदि कोई स्पांसर आगे आकर भोपाल टीम की फ्रेंचाइजी लेता तो इससे भोपाल में हॉकी एक बार फिर परवान चढ़ती और अपने खोए गौरव को पाने की दिशा में मजबूत कदम होता।

''हम चाहते हैं कि लीग में भोपाल की टीम हो। पर यह हमारे हाथ में नहीं है। इसके लिए जरूरी है कोई फेंचाइजी के लिए आगे आए। भोपाल को लीग में शामिल कर हमें खुशी होगी। ''
 नरेंदर बत्र, चेयरमेन, हॉकी इडिया लीग।

13.9.12

गेल, नरेन, ब्रावो और पोलार्ड बदलेंगे समीकरण

मोहम्मद शकील, भोपाल
18 सितंबर से जब 12 टीमें टी-20 विश्व कप के खिताब के लिए मैदान पर जोरआजमाइश करेंगी तो दुनिया की नजर भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड जैसी हाई प्रोफाइल टीमों पर रहेगी। भले ही वेस्टइंडीज को काई ज्यादा भाव न दे रहा हो, पर टीम संयोजन को देखते हुए उसे खिताब का दावेदार कहना गलत नहीं होगा। टीम का संयोजन टी-20 के लिए पूरी तरह से अनुकूल है। बात चाहे तेज बल्लेबाजी की हो या गेंदबाजी की, वेस्टइंडीज की टीम पूरी तरह से संपूर्ण नजर आती है। आईपीएल के हालिया संस्करण में सुनील नरेन और क्रिस गेल ने जिस स्तर का प्र्दशन किया है, उससे टीम काफी मजबूत हुई है। विशेषकर श्रीलंका के टर्निग विकेट पर नरेन की भूमिका निर्णायक रहने वाली है।
टीम में क्रिस गेल और कीरोन पोलार्ड जैसे विस्फोटक बल्लेबाज हैं। नरेन के बारे में सैमी कहते हैं कि हमारे पास टी-20 क्रिकेट का अभी सर्वश्रेष्ठ स्पिनर है और वह हमारे लिए वास्तव में अच्छा प्रदर्शन कर रहा है। बेशक नरेन को श्रीलंका की पिचों से मदद मिलेगी। क्रिस के आने से बल्लेबाजी अनुभवी हो गई है तथा पोलार्ड, ड्वेन ब्रावो, ड्वेन स्मिथ और आंद्रे रसेल जैसे खिलाड़ी मैच का रुख बदलने का माद्दा रखते हैं।

गौरवशाली रहा है वेस्टइंडीज का इतिहास

वेस्टइंडीज क्रिकेट का इतिहास बेहद गौरवशाली रहा है। क्लाइव लॉयड की कप्तानी में कभी वेस्टइंडीज मारक क्षमता वाली टीम हुआ करती थी। उन्होंने 1970 से 1980 तक क्रिकेट पर एकछत्र राज किया है। लेकिन इसके बाद उसकी टीम को संघर्ष करना पड़ा और तेजी से पतन हुआ। सैमी की अगुवाई वाली टीम को टी-20 विश्व कप में खिताब पर कब्जा जमा सकती है। वेस्टइंडीज ने 2004 में चैंपियंस ट्राफी जीतने के बाद कोई बड़ा टूर्नामेंट नहीं जीता है।

12.9.12

इस बार एशियाई महाद्वीप में हो रहे टी-20 विश्व कप में स्पिनरों की भूमिका अहम रहने वाली है। एशियाई पिचें शुरू से ही स्पिनरों के लिए स्वर्ग रही है। ऐसे में इस विश्व कप में बल्लेबाज लट्टू की तरह नाचते हुए दिखेंगे। भारत की ओर से इस भूमिका का निर्वाहन आर. अश्विन करेंगे। न्यूजीलैंड के विरुद्ध टेस्ट सीरीज  में उन्होंने 18 विकेट लिए थे। उम्मीद तो यही है कि श्रीलंका के पिचों पर भी वह बल्लेबाजों को अपनी फिरकी के जाल में फसाएंगे। जब गेंद पाकिस्तान के सईद अजमल के हाथों में होती है तो विकेट गिरने का अंदेशा होने लगता है। टी-20 में इन्हें विकेट मशीन कहा जा सकता है। 41 मैचों में 58 विकेट कम नहीं होते। शाहिद अफ्रीदी के बारे में भी यही कहा जा सकता है। जितना बल्ले से करते हैं उससे कहीं ज्यादा गेंद से करते हैं। टर्न के साथ रफ्तार इस बार भी बल्लेबाजों के लिए कड़ी चुनौती होगी। इस कड़ी में एक और नाम आता है, वेस्टइंडीज के सुनील नरेन का। आईपीएल के जरिए अपनी गेंदबाजी से इन्होंने जितनी सुर्खियां बंटोरी, उतनी पिछले एक दशक में किसी विदेशी गेंदबाजों को नहीं मिली है। ये वह खिलाड़ी हैं जिनके कंधों पर अपनी टीम को चैंपियन बनाने का जिम्मा है।   

11.9.12


भारतीय टीम जब 18 सितंबर से टी-20 विश्व के अभियान की शुरूआत करेगी तो टीम को सबसे ज्यादा कमी एक ऑलराउंडर की खलेगी। क्रिकेट के इस छोटे संस्करण में ऑलराउंडर की भूमिका अहम हो जाती है। विश्व कप में हिस्सा ले रही ज्यादातर टीमों के पास बेहतरीन ऑलराउंडर है। पर भारत के पास ऑलराउंडर के नाम पर सिर्फ इरफान पठान है। पठान भी गेंदबाज ज्यादा और बल्लेबाज कम हैं। यह भारत की विफलता रही है कि कपिल देव के बाद सही मायने में कोई ऑलराउंडर भारत नहीं ढूंढ पाया।
2007 में जब हम खिताब जीते थे तब भी स्थिति यही थी। पांच साल बाद आज भी कुछ नहीं बदला। भारतीय बोर्ड ने आईपीएल को यह कह कर प्रोत्साहित कया कि इससे घरेलू प्रतिभाएं निकलेंगी। आश्चर्य है, आईपीएल के पांच संस्करण भी हमें एक अदद ऑलराउंडर नहीं दे पाया। ध्यान रहे पठान आईपीएल की देन नहीं हैं।  2007 विश्व कप के भारतीय टीम की तुलना अगर इस विश्व कप के टीम से की जाए तो इस बार 6 नए चेहरे है। इन 6 में से 4 खिलाड़ी ही ऐसे है जो 2007 के बाद प्रकाश में आए। सुरेश रैना, आर अश्विन, अशोक डिंडा और विराट कोहली। यानी पिछले 5 साल में हमें टी-20 के लिए उपयोगी सिर्फ 4 खिलाड़ी ही मिले है। उसमें भी कोई ऑलराउंडर नहीं। उम्मीद है, विश्व कप में ऑलराउंडर की कमी को रैना, सहवाग और रोहित शर्मा पूरी करेंगे।
टी-20 विश्व कप के चार ग्रुप में से प्रत्येक ग्रुप में एक कमजोर कड़ी है। ग्रुप ‘ए’ में भारत के साथ अफगानिस्तान है, तो ग्रुप ‘बी’ में आयरलैंड। वहीं ग्रुप सी और डी में क्रमश: जिम्बाब्वे और बांग्लादेश की टीम है (इसे कमजोर समझना बेमानी होगी)।  इतना तो तय है कि अफगानिस्तान, आयरलैंड और जिम्बाब्वे के लिए कप तक पहुंचना लगभग नामुमकिन है। मैं बंग्लादेश को इस श्रेणी में नहीं रखना चाहता, क्योंकि एशिया कप के फाइनल में पहुंचकर और फाइनल करीब-करीब जीतकर वह मुख्य धारा की टीम बन गई है। तो फिर आयरलैंड, अफगानिस्तान और जिम्बाब्वे का मकसद क्या होगा? जाहिर है, बड़ी टीमों को चौंकाना। उलटफेर करना। टी-20 विश्व कप के इतिहास में उलटफेर होते रहे हैं। 2007 में हुए पहले टी-20 विश्व कप में बांग्लादेश (तब अमूमन कमजोर टीम हुआ करती थी) ने वेस्टइंडीज को 6 विकेट से हराकर टूर्नामेंट से ही बाहर कर दिया था। यह तो फिर भी स्वीकार्य था। लेकिन ग्रुप बी के एक मैच ने सबका ध्यान खींचा। जिम्बाब्वे जैसी कमजोर टीम ने कंगारूओं को धर दबोचा। वो तो भला हो कि जिम्बाब्वे का नेट रन रेट थोड़ा कम पड़ गया, अन्यथा आस्ट्रेलिया का पत्ता साफ हो जाता। टी-20 विश्व कप के दूसरे संस्करण में भी उलटफेर हुए। आयरलैंड ने बांग्लादेश को न सिर्फ हराया बल्कि उसे प्रतियोगिता से भी बाहर कर दिया। पर इस संस्करण का असली उलटफेर अभी बाकी था। हॉलैंड ने अपने चिर प्रतिद्वंद्वी इंग्लैंड को 4 विकेट से हराकर सनसनी मचा दी। हॉलांकि बेहतर रन रेट से इंग्लैंड नॉकआउट तक पहुंचने में कामयाब रहा। हॉलैंड की टीम इस बार विश्व कप के लिए क्वालीफाई नहीं कर पाई।
सिर्फ टी-20 में ही नहीं, एकदिवसीय में भी ऐसी टीमें उलटफेर करने में माहिर रहीं है। 2007 विश्व कप में बांग्लादेश ने भारत को हरा कर बाहर कर दिया था। यही हश्र आयरलैंड के हाथों हार कर पाकिस्तान का हुआ। 2011 विश्व कप में भी आयरलैंड ने इंग्लैंड को हराया था। यह जीत इस लिए बड़ी थी क्योंकि आयरलैंड ने 329 रन का लक्ष्य हासिल किया था। उलटफेर के इस सिलसिले का इस विश्वकप में भी जारी रहने की संभावना है। क्योंकि कमजोर टीमों का मूल मंतव्य बड़े टीमों का शिकार कर उनका समीकरण बिगाड़ने का होता है।

मोहम्मद शकील, भोपाल
‘‘इतिहास के अच्छे प्रदर्शन मायने नहीं रखते। ऐतिहासिक गौरव सिर्फ प्रेरणा दे सकता है। सच्चई तो यह है कि किसी खिलाड़ी के लिए एक दिन खास होता है, जिस दिन वह परफार्म करता है।’’
यह कहना है राजधानी भोपाल के एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय और विश्व के नंबर तीन स्नूकर खिलाड़ी कमल चावला का, जो 24 नवंबर से आईबीएसएफ विश्व स्नूकर चैंपियनशिप में उतरेंगे। इसके लिए उन्हें भारत से प्रथम वरीयता दी गई है। यह चैंपियनशिप बुल्गारिया के शहर सोफिया में खेली जाएगी। प्रदेश टुडे से खास बातचीत में कमल ने कहा कि मैं इस टूर्नामेंट में पिछली बार सेमीफाइनल तक पहुंचा था। पर इससे इस टूर्नामेंट में कोई असर नहीं पड़ेगा। खिलाड़ी के लिए हर दिन नया होता है और एक दिन खास होता है जिस दिन वह परफार्म करता है।
विश्व स्नूकर चैंपियनशिप की मेजबानी पहले मिस्र को करनी थी। पर सुरक्षा कारणों से मिस्र ने मेजबानी से इंकार कर दिया। कमल ने बताया कि मैं यह सोच कर परेशान था कि कहीं यह चैंपियनशिप रद्द न हो जाए। क्योंकि ऐन मौके पर कोई भी देश इतने बड़े आयोजन की जिम्मेदारी लेने से कतराएगा। चूंकि अब यह चैंपियनशिप बुल्गारिया में होना तय है तो अब मेरा पूरा ध्यान चैंपियनशिप पर केंद्रित है।
आगे कमल ने कहा कि मैं 15 अक्टूबर के आसपास ट्रेनिंग के लिए जाने की सोच रहा हूं।  उन्होंने बताया कि कल खेल संचालक डॉ. शैलेन्द्र श्रीवास्तव से उनकी बात हुई थी और उन्होंने अच्छी ट्रेनिंग दिलाने का आश्वासन दिया है। उल्लेखनीय है कि खेल एवं युवा कल्याण विभाग ने पिछले वर्ष शेफील्ड में एक महीने की ट्रेंनिग पर भेजा था, जिससे उनके प्रदर्शन में सुधार भी हुआ था। मालूम हो कि चैंपियनशिप में कमल चावला के अलावा ब्रजेश दमानी भी हिस्सा लेंगे।
पहले यह चैंपियनशिप मिस्र में होने वाली थी, लेकिन इसे बदलकर अब बुल्गारिया में कर दिया गया है। कमल गत वर्ष भारत में खेली गई विश्व चैंपियनिशप में सेमीफाइनल तक का सफर तय किया था और तीसरा स्थान हासिल किया था। इस बार कमल विश्व चैंपियनशिप में भाग लेने से पहले एक महीने की ट्रेनिंग के लिए विदेश जाना चाहते हैं।




24.2.12

बुधवार को बीएचएमएस थर्ड ईयर की छात्रा ने अपने कमरे में फांसी लगा ली. वजह था प्यार में धोखा. इससे पहले भी मेडिकल की एक छात्र ने ख़ुदकुशी कर ली थी. वहां भी मामला प्रेम प्रसंग का ही था. ऐसी ख़बरें कितनी दुखद होती है. सिर्फ मनचाहा प्यार न मिलने पर जिंदगी को अलविदा कह देना, युवाओं की सोच पर बड़े सवाल खड़े करता है. आखिर युवाओं में इतनी हताशा, इतनी निराशा क्योँ?
कुछ ही दिन पहले की बात है. मेरे कॉलेज में दो दोस्त आपस में झगड़ रहे थे. एक का कहना था कि तुमने बीती रात मेरा फ़ोन सिर्फ इस लिए नहीं उठाया, क्यूंकि तुम उस वक़्त किसी लड़की से बात कर रहे थे. तुम लड़कियों को बिला वजह इतना महत्व देते हो. मैं तो लड़कियों को घुटने पर रखता हूँ. तभी दूसरा दोस्त अपने जूतों कि तरफ इशारा करते हुए बोला- मैं लड़कियों को यहाँ रखता हूँ...............................
यह विचार किसी एक लड़के के व्यतिगत हो सकते हैं, पर इसमें कोई शक नहीं कि लडको कि ऐसी मानसिकता लड़कों के एक बड़े समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं. ज़ाहिर है अगर लड़के लड़कियों के बारे में ऐसी सोच रख सकते हैं, तो उसे मरने के लिए भी छोड़ सकते हैं. मेरा भी व्यकिगत तौर पर भी यही मानना है कि लड़के अच्छे प्यार करने वाले होते हैं, जबकि लड़कियां अच्छी चयन करने वाली होती है. अंग्रेजी में कहा भी जाता है- "Boy is a good lover and girl is a good chooser". बहुत कम ऐसे अवसर आते हैं, जब लडकियां किसी से सच्चा प्यार करती है. पर जब वो सच्चा प्यार करती है, तो पूरे मन से करती है. यहाँ तक कि नर्क तक भी उस लड़के का पीछा करती है. मुझे कहने में कोई झिझक नहीं कि उनके  प्यार की पराकाष्ठा ही उन्हें आत्महत्या पर आमादा कर देती है.
मैं लड़कों को कटघरे में खड़ा नहीं करना चाहूँगा. पर वे इन बारीकियों को समझें  कि सच्चा प्यार करने वाली लड़कियां किसी भी कीमत पर हार नहीं मानतीं. तब उनके पास दो ही रास्ते होते हैं. या तो आपने प्यार को पाना या फिर खुद को मिटा देना.
लड़कियों को भी यह समझने होगा कि ख़ुदकुशी कोई समाधान नहीं है. मरने के बाद अगर किसी को प्यार का एहसास हो भी जाए तो क्या फर्क पड़ता है. बेहतर तो यही होगा कि लड़कियां जीते जी अपनी भावनाओं को समझा पायें. वैसे भी समय से पहले और तकदीर से ज्यादा किसी को क्या मिलता है. नियति भी कोई चीज़ होती है......
सदा तो धूप के हाथों में भी परचम नहीं होता
ख़ुशी के घर में भी बोलो क्या कोई गम नहीं होता?
फ़क़त एक आदमी के वास्ते जग छोड़ने वाले
फ़क़त उस आदमी से ये ज़माना कम नहीं होता


उम्मीद है अब ऐसी ख़बरें हमारे कान के पर्दे से नहीं टकराएंगी.