15.7.11

13.7.11

नंदनी को जब अरमान ने किसी दूसरे लड़के  के साथ बाईक पर घूमते देखा तो उसका मन निराशा से भर गया। उन्हें वह दौर याद आ गया जब नंदनी उनके साथ हाथों में हाथ डालकर घूमा करती थी। कभी जीवन भर एक दूसरे का साथ निभाने की कशमें खाई थी। पर दोनो अलग हुए क्यों? क्या इसके लिए अरमान का व्यवहार जिम्मेदार था? हो सकता है। नंदनी आधुनिक ख्यालों में रची बसी थी। पर अरमान परम्परागत विचारों को आदर्श मानता था। उन्हें  न तो नंदनी का पहनावा पसंद था और न  ही वह नंदनी के उन विचारों को प्रशय देता था जो नंदनी अक्सर अरमान पर थोपना चाहती थी। शायद इन्ही विरोधाभासी विचारों ने दोनों के रिश्तों में कटुता पैदा कर दी थी। नंदनी ने उन बाहों में शरण ले ली जो उन्हें वो सारी सारी चीजे करने की  छूट देता हो। और अरमान? उन्हेंने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया। वो नंदनी को दूर होते हुए देख सकता था पर अपने मूल्यों को नहीं। एक दिन उन्होंने नंदनी को मिलने के लिए बुलाया। और क्या कहा?
"आप जो कर रहे हैं वो सरासर गलत है। पर मैं भी घोर आशावादी प्रवृति का  हूं। आपके  इस व्यवहार में भी मुझे संभावनाओं की जमीन दिखाई दे रही है। यह बात आप भी जानते है कि आपका  व्यवहार मुझे कतई अच्छा नहीं लगेगा। पता नहीं इसके पीछे आपका  मंतव्य क्या है। पर आप ऐसा कर के जाने-अनजाने मेरी जिंदगी पर बड़ा उपकार कर रहे हैं। क्योंकि जब भी मैं आपको किसी दूसरे लड़के के  साथ देखता हूं तो मेरे अन्दर एक अदृश्य शक्ति का  संचार हो जाता है। जीवन में कुछ बनने का जज्बा पैदा हो जाता है। जिंदगी से लडऩे का हौसला मिलता है। मुझे नजरअंदाज करने वाला आपका हर एक कदम मुझे गंभीर जीवन के और समीप ले आता है। मेरा आपसे विनम्र निवेदन है कि आप मेरे साथ एसा व्यवहार जारी रखे। क्योंकि यही मुझे हौसला देती है। हालात से लडऩे के लिए प्रेरित करती है। तो नंदनी जी और जलाईए मुझे। जितना जला सकते है उतना जलाईए। मेरे दिशाहीन जिंदगी को इस जलन की जरूरत है। आपके जलन के इस चलन को मेरा नमन।"

12.7.11

11.7.11


पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं  इतना स्वीकर करें  
छोड़ के अपना घर आंगन गैरों के घर से प्यार करें


आठ इंच की  हील कहीं, कहीं कमर से नीचे पैंट है
खान-पान में पिट्जा बर्गर फिल्मों में जेम्स बांड है
हिंदी भी अब रोने लगी है देख के आज युवाओं को
बात-चीत की शैली में जो अमरिकन एक्सेंट है
 
जरूरी है क्या इन चीजों को खुद से अंगीकार करें
पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं इतना स्वीकार करें

हेड फोन कानों में लगा है जुबां पे इसके गाली है
बाल हैं लंबे, हेयर बेल्ट और कान में इसके बाली है
देख के कैसे पता चले यह लड़का है या लड़की है
चाल चलन भी अजब गजब है चाल भी इसकी निराली है

कहता है कानून हमारा लड़कों से भी प्यार करें
पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं इतना स्वीकार करें 

सरवार दुपट्टा बीत गया अब जींस टॉप की बारी है 
वस्त्र पहनकर पुरुषों का यह दिखती कलयुगी नारी है
सोचो आज की लड़की क्या घर आंगन के काबिल है
रोज-रोज ब्यॉ फ्रेंड बदलना फैशन में अब शामिल है

आधुनिकता को ढाल बनाकर इश्क का क्यूं व्यपार करें
पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं इतना स्वीकार करें


जींस कहीं आगे से फटी पीछे से फटी यह डिस्कोथेक जेनरेशन है
भूल के अपनी भारत मां को  पश्चिम में करते पलायन है
होंठ लाल नाखुन भी बड़े यह दिखती बिल्कुल डायन है
गांधी जयंती याद नहीं पर याद इन्हें वेलेनटायन है
 
भारत की गौरव का कब तक यूं ही हम तिरस्कार करें
पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं इतना स्वीकार करें


मेक-अप से सजा है चेहरा इनका बिन मेकअप सब खाली है
बच के  रहना तुम इनसे यह माल मिलावट वाली है
दर्पण पर एहसान करे श्रृंगार करे यह घंटों में
रंग बदलती गिरगिट की तरह है दिल बदले यह मिनटों में
 
इनसे हासिल होगा नहीं कुछ चाहे हम सौ बार करें
पाश्चात्य संस्कृति को हम क्यूं इतना स्वीकार करें

9.7.11

अज्ञात नामक  एक गांव था। इस गांव के विषय में असामान्य यह था कि यहां सभी अनपढ़ लोग रहते थे। सिर्फ चतुर्वेदी जी को छोड़ कर। ऐसा नहीं था कि चतुर्वेदी जी बहुत बड़े विद्वान थे। चूंकि वह गांव के बाकी लोगों से ज्यादा पढ़े लिखे थे, यहां वहां भ्रमण करते रहते थे, इसलिए लोगों की नजर में किसी विद्वान से कम नहीं थे। चतुर्वेदी जी की एक अच्छी आदत थी। जब भी वह कहीं कोई नई चीज देखते, उसे अपनी डायरी में नोट में कर लेते। पर उनकी एक बुरी आदत भी थी। वह नई चीजों का नाम तो लिखते थे पर उसका विवरण नहीं लिखते थे। एक बार वह एक मेला घूमने गए। वहां उसे एक भीमकाय जानवर दिखा। लोगों  से उसने पूछा कि यह क्या है? जवाब आया कि यह हाथी है। अपनी आदत के अनुसार चतुर्वेदी जी ने अपने डायरी में लिख लिया-हाथी। थोड़ी देर घूमने के बाद उसे एक गोलाकार वस्तु दिखाई दी। लोगों से पूछने पर उन्हें पता चला  कि यह जामुन है। चतुर्वेदी जी ने अपनी डायरी मे लिख लिया- जामुन। चतुर्वेदी जी ने ना ही हाथी का विवरण लिखा और न ही जामुन का। हां उन्होंने दोनों के आगे काला शब्द जरूर लिखा था।
इत्तेफाक से कुछ दिनों बाद गांव में एक हाथी आया। गांव वालों के लिए यह एक कौतुहल का विषय बन गया क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि यह जानवर है क्या। लोगों ने सोच कि क्यों न चतुर्वेदी जी के पास चलते है। वह पढ़े लिखे हैं। जगह-जगह घूमते रहते हैं। उन्हें जरूर पता होगा इस जानवर के बारे में। लोगों के बुलावे पर चतुर्वेदी जी हाथी के पास पहुंचे। हाथी को देखने के बाद फौरन उसे याद आया कि इसे पहले कहीं देखा है। तत्काल उन्होंने अपनी डायरी निकाली। डायरी में दो चीजें लिखी थी- हाथी और जामुन। अब चतुर्वेदी जी दुविधा में पड़ गए कि यह हाथी है या जामुन? क्योंकि किसी का विवरण तो उन्होंने लिखा था नहीं। पूरे गांव की भीड़ एकत्र थी और चतुर्वेदी जी को उस जानवर के बारे में बताना था। काफी विचार-विमर्श करन के बाद भी चतुर्वेदी जी नतीजे पर नहीं पहुंच पाए कि यह हाथी है या जामुन। अंतत: उन्होंने गांव वालों को संबोधित करते हुए कहा- "देखिए विद्वानों में बहुत मतभेद है। कोई  इसे हाथी कहता है और कोई इसे जामुन।"
(यह कहानी मैंने कहीं सुनी थी)

3.7.11

सेफिया मुझे माही कह कर पुकारती थी। दरअसल यह नाम मेरी मां का दिया हुआ था। कभी-कभी मुझे भी बड़ा अजीब लगता था। कैसा लड़कियों वाला नाम है यह? और एक बार वैभव ने तो कह भी दिया था कि पंजाबी लड़कियों में माही नाम बेहद प्रचलित है। पर सेफिया को माही नाम बेहद पसंद था। वह हमेशा मुझे इसी नाम से संबोधित करती थी। बाकी दोस्त मेरे माही नाम पर चुटकियां लेने लगते थे, पर सेफिया के संबोधन में आत्मीयता का भाव होता था। वह सम्मानपूर्वक, अधिकारपूर्वक और बेहद गर्व के साथ मुझे इस नाम से संबोधित करती थी। अकेले में तो ठीक था पर जब सेफिया सार्वजनिक स्थलों पर मुझे इस नाम से पुकारती थी तो अटपटा सा लगता था। कभी-कभी मुझे इस बात का एहसास होत था कि मैंने उसे यह बताकर गलती कर दी कि मेरी मां मुझे माही नाम से पुकारती है।
सैफिया के माही संबोधन ने ही उन्हें मेरे समस्त दोस्तों में खास बना दिया था। माही शब्द एक बार कान के पर्दे से टकराकर गूंजने लग जाती थी। खैर एक न एक दिन तो इस गूंज को शांत होना ही था। और शांत  हुआ भी। दो चार दस दिन के लिए नहीं पूरे चार साल के लिए।  मां से बात हो जाती तो यह शब्द सुनने को मिल जाता। वर्ना तो कहीं नहीं। इन चार सालों में माही शब्द कान के पर्दे से टकरायी भले ही हो, पर गूंजी नहीं। समय और परिस्थितियों की पुनरावृत्ति अवश्य होती है। और यह हुआ भी। अब नंदनी मुझे माही कह कर पुकारने लगी। पर नंदनी को माही शब्द के बारे में पता कैसे चला? वैसे ही जैसे सेफिया को पता चला था। नंदनी के संबोधन से मुझे परेशानी तो नहीं थी, पर यह शब्द सुनकर मैं चार साल पीछे चला जाता था। सेफिया का माही और भी गूंजने लगा था। बिल्कुल ध्वनि तरंगों की तरह। पर हुआ वही़...........................ज़ैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि समय और परिस्थितियां स्वंय को दोहराती है। नंदनी का माही भी ज्यादा दिनों तक नहीं चला और एक साल के अंदर ही दम तोड़ गया।
अगर समय और परिस्थिति ने किसी को नहीं बदला तो वो है मेरी मां। सेफिया और नंदनी का संबोधन भले ही बदल गया हो, पर मां का संबोधन आज तक नहीं बदला। नंदनी और सेफिया की तरह और भी आएंगी। पर शायद ही किसी का माही संबोधन मेरी मां की तरह दीर्घकालिक हो।

30.6.11

दिल में हो कुछ और मगर चेहरे से कुछ और दिखाने का
हुनर हमने भी सीख लिया है फर्जी रिश्ता बनाने का

अनजान था अपनी सूरत से मैं
दर्पण नैन के उसने दिखलाई
एहसास-ए-मोहब्बत से था खाली
प्रेम फूल के उसने खिलाई

इरादे उसकी समझ न पाया जो था मुझको मिटाने का
हुनर हमने भी सीख लिया है फर्जी रिश्ता बनाने का

चारों तरफ था अंधियारा
वो आशा की एक किरण थी
रौशनी ने दस्तक दी थी
वो सूरज की एक किरण थी

रौशनी का खेल असल में खेल था मुझको मिटाने का
हुनर हमने भी सीख लिया है फर्जी रिश्ता बनाने का

प्यार न करना तुम यारो
न पड़ना तुम इस चक्कर में
तेरा ही दिल टूटेगा
दो दिलों की इस टक्कर में

फिर भी यदि तुम कर बैठो तो कोशिश न करने निभाने का
हुनर तुम भी अब सीख लो यारो फर्जी  रिश्ता बनाने का  

18.6.11

एक चैंपियन टीम कौन होती है? पूर्व आस्ट्रेलियाई कप्तान एलन बोर्डर ने एक बार कहा था कि चैंपियन टीम वह होती है जो जीत के  हालात न होने के  बाद भी जीत के  आसार पैदा कर दे। भारतीय टीम सीरीज भले ही जीत गई हो पर प्रभावित करने में नाकाम रही। पांच मैचों में अंतिम दो हार ने जीत की खुशी फीकी कर दी। कहां तो शुरूआती जीत से भारत की वाहवाही हो रही थी, पर आखरी दो मैचों में तो भारत मुकाबले में था ही नहीं। शुरूआती जीत को भी धमाकेदार नहीं कहा जा सकता। यह सच है कि भारत के प्रमुख खिलाड़ी इस श्रृंखला में नहीं थे, पर वेस्टइंडीज की टीम भी तो दोयम दर्जे की  थी। शुरू में तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा, पर सीरीज में 3-0 की बढ़त के बाद भारत की पुरानी आदत फिर से जगजाहिर हो गई। प्रयोग किये  जाने लगे। हरभजन और मुनाफ को  विश्राम क्या दिया गया, गेंदबाजी पूरी तरह से बेदम हो गई। इन प्रयोगों को आत्मघाती के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता।
कभी ऑस्ट्रलिया चैंपियन हुआ करती थी। और चैंपियन ही नहीं बल्कि उसे अजेय टीम का  दर्जा प्राप्त था। उनकी  कोशिश मैच दर मैच जीतने की  होती थी। वह विपक्षियों को  कोई  मौका  नहीं देते थे। लगातार जीत ने ही आष्ट्रेलिया को मारक क्षमता वाली टीम बना दिया था। चैंपियन का  खौफ सामने वाली टीम पर साफ दिखाई पड़ता था। पर पता नहीं क्यों भारत सीरीज जीत कर ही संतुष्ट हो गया? भारत के  हक में सिर्फ यही बात कही जा सकती है कि युवाओं ने दमदार प्रदर्शन किया। रोहित शर्मा और विराट कोहली जाने अनजाने ही भारतीय बल्लेबाजी क्रम की रीढ़ बनकर उभरे। वही अमित मिश्रा ने मौके का  फायदा उठाकर खुद को साबित किया तो हरभजन और मुनाफ का  अनुभव काम आया। कप्तानी में रैना की अपरिपक्वता साफ तौर पर दिखी। यूसुफ पठान ने हर दृष्टि से निराश किया। वहीं पार्थिव पटेल और शिखर धवन मिले मौके  को  भुनाने में नाकाम रहे।

19.5.11

फोटो गूगल से साभार

कैसी तुझसे लगी है दिल की लगन, एक तुम्हारे सिवा कुछ भी दिखता नहीं.  
कितने फूलों ने भँवरे को निमंत्रण दिया, एक तुम्हारे सिवा कोई जंचता नहीं.
खुशबूओं से रचा है बदन ये तेरा, 
तू रहती है फूलों की हर डाल में .
मुस्कुरा के  पलटकर जो देखोगी तुम, 
कैसे दिल चुप रहेगा इस हाल में.

तुम संभालोगे फिर भी न संभलेगा दिल, जोर इसपर किसी का भी चलता नहीं.
कैसी तुझसे लगी है दिल की लगन, एक तुम्हारे सिवा कुछ भी दिखता नहीं. 
तुमने छू ली है जबसे ऊँगली मेरी, 
मैं तब से नशे में हूँ डूबा हुआ.  
चाँद सूरज कभी मिल सकते नहीं, 
हम तुम मिले यह अजूबा हुआ.

वो दिल नहीं कोई पत्थर ही होगा, सुन के ये बात दिल गर धड़कता नहीं.
कैसी तुझसे लगी है दिल की लगन, एक तुम्हारे सिवा कुछ भी दिखता नहीं. 
तुझसी मीठी नहीं है ज़माने की बोली,
तंज़ होता है  इसके हर बात में.
कौन देता है ज़ख्मों को मरहम यहाँ?
लोग बैठे हैं लेकर नमक हाथ में.

दिल के ज़ख्मों को तुम न दिखाओ कभी, कौन होगा जो इस पर हँसता नहीं.
कैसी तुझसे लगी है दिल की लगन, एक तुम्हारे सिवा कुछ भी दिखता नहीं 
प्यार जब भी करो डूब कर के करो,
कुछ कमी इसमें फिर रहने न पाए.
तुमने पलकें भिगोई दिल को दुखाया 
कोई तुमसे ये फिर कहने न पाए.

सागर से साहिल का तुम इश्क देखो, है लहरों में डूबे  पर दम घुटता नहीं .
कैसी तुझसे लगी है दिल की लगन, एक तुम्हारे सिवा कुछ भी दिखता नहीं.


16.5.11


तेरी तस्वीर भी मुझसे रू-ब-रू नहीं होती
भले मैं रो भी देता हूँ गुफ्तगू नहीं होती
तुझे मैं क्या बताऊँ जिंदगी में क्या नहीं होता 
ईद पर भी सवईयों में तेरी खुशबू नहीं होती

जिसे देखूं , जिसे चाहूं, वो मिलता है नहीं मुझको
हर एक सपना मेरा हर बार चकना-चूर होता है
ज़माने भर की सारी ऐब मुझको दी मेरे मौला 
मैं जिसके पास जाता हूँ, वो मुझसे दूर होता है.

दिल में हो अगर गम तो छलक जाती है ये आँखें 
ये दिल रोए, हँसे आँखे हमेशा यूं नहीं होता
ज़माने भर की सारी ऐब मुझको दी मेरे मौला
किसी पत्थर को भी छू दूं , वो मेरा क्योँ नहीं होता?

गीत में स्वर नहीं मेरे ग़ज़ल बिन ताल गाता हूँ
अगर सुर को मनाऊँगा, तराना रूठ जाएगा,,,
ये कैसी कशमकश उलझन मुझे दे दी मेरे मौला 
अगर तुमको मनाऊँगा, ज़माना रूठ जाएगा.

23.1.11


फोटो गूगल के सौजन्य से.

बीजेपी एक बार फिर अपनी घिसी-पिटी सियासत लेकर मैदान में है. वह 26 जनवरी को लाल चौक पर तिरंगा फहराने की जिद पर अड़ी हुई है. इससे पहले 1992 में बीजेपी के एक अग्रिम पंक्ति के नेता मुरली मनोहर जोशी ने इसी तरह के एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. तब उनहोंने अपनी 42 दिनों की मैराथन यात्रा के तहत पूरे देश में घूम-घूम कर देशभक्ति का ताबड़तोड़ प्रोपेगेंडा किया था. पर उस वक़्त भी बीजेपी के हाथ कुछ नहीं लगा. ना तो कश्मीर मुद्दे का कोई समाधान हुआ, ना वहां के पंडितों का मसला हल हुआ, और न ही वहाँ के हिंसा पर उतारू तबके के संकल्प में कोई कमी आई.  बीजेपी की ये नीति समझ से परे है कि आखिर कश्मीर एक राष्ट्रीय समस्या है, पर वह उसे सांप्रदायिक रंग देने पर क्यूं तुली हुई है? इससे तो वहां के अलगाववादियों को हौसला मिलता है, जो कश्मीर को एक धार्मिक मुद्दा बनाने पर आमादा हैं. एक बार फिर बीजेपी ने लाल चौक को निशाना बनाया है. आईए इसके पीछे के निहितार्थ का जायजा लेते हैं.
सबसे पहले तो हमें बीजेपी के परेशानियों को समझना होगा. असीमानंद के कथित स्वीकोरोक्ति के बाद बीजेपी के आला नेता ज़हनी तौर पर बहुत परेशान हो गए हैं. आतंकवादी गतिविधियों में संघ परिवार का नाम आने से अब बीजेपी के नेताओं के मुंह में वो ज़हर नहीं रहा, जो वो अक्सर दहशतगर्दी के नाम पर उगला करते थे. कल तक जिनके होंठ "इस्लामी आतंकवाद" कहते-कहते दुखते नहीं थे, आज आतंकवाद को किसी धर्म से जोड़ने पर ऐतराज़ कर रहे हैं.  बीजेपी के वो नेता जो अपने सांप्रदायिक  नीतियों पर धर्मनिरपेक्षता का मखमली पर्दा डाल कर कहते थे कि यह सच है कि सारे मुस्लिम आतंकवादी नहीं होते, पर सारे आतंकवादी मुस्लिम होते हैं. अब तो यह कहने का मौका भी उनके हाथ में नहीं रहा. इसके उलट अब उन्हें यह सुनने को मिल रहा है कि यह सच है कि सारे संघी आतंकवादी नहीं है, लेकिन जितने आतंकवादी पकड़े जा रहे हैं, वो संघी ही क्यूं है? ऐसे में बीजेपी घबरा गयी है और इसी घबराहट में वह 10 साल पुरानी सियासत को फिर से जिंदा करने की फ़िराक में है. इस दिशा में उन्होंने लाल चौक पर तिरंगा फहराने कि घोषणा कर के वहां की हालत बिगाड़ने कि कोशिश कर रही है. 
सवाल उठता है कि आखिर लाल चौक ही क्यूं? भारत में ऐसे कई क्षेत्र हैं जहाँ तिरंगा नहीं फहराया जाता. वहां सिर्फ लाल झंडे की तूती बोलती है. बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, छत्तीसगढ़ और यहाँ तक कि मध्यप्रदेश के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में 15 अगस्त और 26 जनवरी पर तिरंगा नहीं फहराया जाता है. वहां तिरंगे कि ज़गह लाल झंडा चलता है. वोट देने वालों का क्या हश्र होता है, यह किसी से छुपा नहीं है. क्या बीजेपी के नेताओं में इतनी हिम्मत है कि वो इन इलाकों में जाकर तिरंगा फहराए?  सच्चाई तो यह है कि इन इलाकों में तिरंगा फहराने से उन्हें कोई सियासी लाभ मिलने वाला नहीं है. अगर बीजेपी दोस्ती और देशभक्ति कि भावना से लाल चौक पर तिरंगा फहराना चाहती है, तो उन्हें यह काम नक्सली इलाकों में भी करना चाहिए.
नक्सली क्षत्रों में तो भारत का कानून तक नहीं चलता है. वहां तो उन्होंने अपनी अदालतें कायम कर रखी है. बजाब्ता उनकी जेलें भी हैं. वहां तिरंगा फहराना किसी के बस की बात नहीं है. इन इलाकों के मुकाबले तो कश्मीर में हालात फिर भी बेहतर है. श्रीनगर के बख्शी स्टेडियम और ज़म्मू के मौलाना आज़ाद स्टेडियम में गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर झंडोत्तोलन के कार्यक्रम होते हैं. कहने का आशय यह है कि तिरंगे की ज़रुरत लाल चौक से ज्यादा नक्सलियों के लाल इलाकों में है. क्या बीजेपी इस बात को समझेगी?
बीजेपी की जानिब से लाल चौक पर तिरंगा फहराने की घोषणा से ज़म्मू-कश्मीर की भारतीय जनता पार्टी यूनिट बहुत खुश है. पर असली ख़ुशी तो वहां के अलगाववादी गुटों को मिली है. उन्हें पता है की ऐसा कर के बीजेपी उन्हीं का काम आसान कर रही है. अलगाववादी तो ये चाहते हैं कि कश्मीर मसले को धार्मिक रूप दिया जाय. कभी उन्होंने कश्मीरी पंडितों पर ज़ुल्म ढाए और उन्हें घाटी छोड़ने पर मजबूर कर दिया. क्यूंकि वो चाहते थे कि कश्मीर मसले को मज़हबी रंग दिया जाए. बीजेपी ने भी हर बार अलगाववादियों की शाजिसों को कामयाब करने का ही काम किया. उन्होंने सिर्फ कश्मीरी पंडितों पर ढाए गए ज़ुल्म का विरोध किया. क्या अलगाववादियों ने घाटी के मुसलामानों पर ज़ुल्म नहीं ढाए? क्या कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की तुलना में ज्यादा कश्मीरी मुसलमानों का क़त्ल नहीं हुआ? क्या अनगिनत कश्मीरी मुसलमान वादी छोड़ने पर मजबूर नहीं हुए हैं? क्या अनगिनत कश्मीरी मुसलमान नहीं हैं, जो फिर से घाटी में जाकर बसने से डरते हैं? क्या कश्मीर में मारे गए मुस्लिम रहनुमाओं को वहीं के दहशत पसंदों ने नहीं मारा?
एक बेहद अहम चीज यह कि 1992 में लाल चौक पर तिरंगा फहराने के कुछ ही वर्षों बाद बीजेपी को सत्ता में आने का मौका मिला. इस दौरान उन्होंने न तो कश्मीर मसले का कोई समाधान किया और न ही वहां से पलायन पर मजबूर कश्मीरी पंडितों के दुखों को ही दूर किया. तो फिर आज किस मुंह से बीजेपी लाल चौक को अपनी सांप्रदायिक सियासत का अखाड़ा बनाना चाहती है? फिरकापरस्ती का ये मुखौटा ज्यादा दिन तक साथ देने वाला नहीं है. बीजेपी को चाहिए कि वो अपनी ख़राब होती छवि को सुधारने के लिए इसमें देशभक्ति के असली रंग भरे. चेहरे पर देशभक्ति का मुखौटा लगा कर जोकर बनने की कोशिश न करे. 

20.1.11

फोटो गूगल के सौजन्य से.
शीर्षक थोड़ा चौकाने वाला हो सकता है। आप सोच रहे होंगे कि एक ऐसे शख्स से हम क्या सीख सकते हैं, जिन्होंने देश में धमाके की बात स्वीकार की हो। जो बम का जवाब बम से देने जैसी सोच की नुमाईंदगी करता हो। और जिन्होंने निर्दोषों की जान लेना ही अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया था। पर मैं असीमानंद के गुनाहों का तजकिरा नहीं करने जा रहा हूँ। आज मैं असीमानंद के एक अन्य पहलू की बात कर रहा हूँ, जिससे हम काफी कुछ सीख सकते हैं। पर इससे पहले बात अब्दुल कलीम नामक युवक की। अब्दुल कलीम मक्का मस्जिद धमाके के आरोप में पिछले डेढ़ साल से जेल में बंद था। इत्तेफाक से असीमानंद को गिरफ्तार करने के बाद उसी जेल में उसी सेल में रखा गया, जिसमें अब्दुल कलीम था। कितना विचित्र दृश्य होगा वह! एक तरफ धमाके का हकीकी गुनाहगार असीमानंद और दूसरी तरफ बेगुनाह अब्दुल कलीम। जेल में मुलाक़ात के दौरान अब्दुल कलीम ने अपने और दिगर बेक़सूर मुस्लिम नौजवानों के सिलसिले में असीमानंद से बात की और उसे बताया की किस तरह बिना किसी ठोस प्रमाण के उन नौजवानों को गिरफ्तार किया गया और उस पर ज़ुल्म ढाए गए। साथ ही अब्दुल कलीम के अच्छे  बर्ताव ने असीमानंद को काफी प्रभावित किया। असीमानंद ने अपने इकबालिया बयान में खुद कहा था कि जेल में अब्दुल कलीम ने उनकी काफी मदद की। उनके लिए खाना व गर्म पानी वगैरह भी लाया करता था। साथ ही नहाने के लिए गर्म पानी भी मुहय्या करता था। इन्हीं चीजों ने असीमानंद के जमीर को झकझोर दिया। असीमानंद ने अपने इकबालिया बयान में कहा कि अब्दुल कलाम के नेक व्यवहार ने उसे गुनाहों का ऐतराफ  करने पर मजबूर कर दिया, ताकि उसली गुनहगारों को सजा मिल सके।
आखिरकार असीमानंद का अंत:करण जाग उठा। अपने गुनाहों का प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने अपने गुनाहों को स्वीकार कर लिया। असीमानंद ने अपने जीवन मूल्यों को नए सिरे से देखा और एक सही रास्ता चुना। उन्होंने इस बात की जरा भी परवाह नहीं की कि उनके इस कदम से उनके आका नाखुश हो सकते हैं। उन्हें बाकी बची जिंदगी जेल के सलाखों के पीछे गुजारनी पड़ सकती है और उनका हश्र सुनील जोशी की तरह भी हो सकता है। अगर उन्हें परवाह थी तो बस अपने जमीर की। उन्होंने अपने अंतरात्मा की सुनी।
असीमानंद के जीवन का यह पहलू हम सबको आत्म-मूल्यांकन करने की प्रेरणा देता है। हमें चाहिए कि हम आत्ममंथन करें और अपनी गलतियों को सुधार लें। वहीं हम अब्दुल कलीम के चरित्र से भी काफी कुछ सीख सकते हैं। उन्होंने नेक व्यवहार का जो रास्ता अपनाया वो इस्लाम की बुनियादी शिक्षाओं में से एक है। उन्होंने नफरत के बजाय मोहब्बत से काम लिया और असीमानंद का हृदय परिवर्तन किया।

मैं खुद भी इस बात को मानता हूं कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता। फिर भी यह सच है कि कुछ हिंदू और कुछ मुस्लिम अपने मार्ग से भटक कर हिंसा का रास्ता अपना लेते हैं। ऎसे लोगों को चाहिए कि वो असीमानंद और अब्दुल कलाम से कुछ सबक लें। यदि वो ऎसा करते हैं तो दुनिया में अमन-चैन निश्चित है। वैसे भी इस दुनिया को प्यार की बहुत जरूरत है। पंक्तियां कितनी सटीक हैं ना!
अब तो एक ऎसा वरक तेरा मेरा ईमान हो
एक तरफ गीता हो जिसमें एक तरफ कुरआन हो
काश ऎसी भी मोहब्बत हो कभी इस देश में
तेरे घर उपवास हो जब मेरे घर रमजान हो
मजहबी झगड़े ये अपने आप सब मिट जाएंगें
और कुछ होकर न गर इंसान बस इंसान हो

19.1.11


    शाम के करीब सात बजे थे. University से रूम पर आया और FM  आन किया. गाना आ रहा था- "पहली-पहली  बार मोहब्बत की है....." गाने की इस बोल को सुनते ही इस फिल्म के दृश्य आँखों के सामने तैरने लगे. यह गाना "सिर्फ तुम"  फिल्म का है. यह फिल्म पिछली सदी के अंतिम दशक के अवसान के समय रिलीज़ हुई थी. 1999 में आयी संजय कपूर और प्रिय गिल अभिनीत यह फिल्म बेहद सफल रही थी.
इस फिल्म को पहली बार मैंने 2003 में देखा था. तब में 9वी कक्षा में पढता था. शुक्रवार को दूरदर्शन पर देखे गए इस फिल्म के दृश्य दिल पर अंकित हो गए. फिल्म में दिखाया गया था कि किस तरह एक लड़का, एक लड़की को बिना देखे, सिर्फ पत्राचार के ज़रिये ही प्यार करने लगता है. यदा-कदा दोनों एक दूसरे से बात भी कर लेते थे, पर चेहरे से अनजान रहते थे. सिर्फ कल्पनाओं में ही दोनों का प्यार परवान चढ़ता है. फिल्म में दोनों एक-दूसरे से कई बार मिलते भी हैं, पर पहचानने से महरूम रह जाते हैं. फिल्म का अंत रेलवे स्टेशन पर होता है, जहाँ लड़की, लड़के को दिए अपने गिफ्ट (स्वेटर) से पहचान लेती है. लड़की का चलती ट्रेन से कूद कर, लड़के के जानिब दौड़ कर आने वाला दृश्य मुझे आज भी रोमांचित करता है.
आज एक दशक बाद यह फिल्म कितना अप्रसांगिक सा लगता है. क्या आज के दौर में ऐसा प्यार संभव है? Facebook, Orkut, E-mail, 3G, Video Confrencing वगैरह के ज़माने में बिना एक-दूसरे को देखे प्यार मुमकिन है? प्यार का स्वरुप कितनी तेज़ी से बदला है और तकनीक ने इनके मूल्यों पर भी असर डाला है. उस फिल्म में दोनों के मिलने की ख्वाहिश या एक-दूसरे को देखने की इच्छा अपने चरम पर होती थी. इन्हीं ख्वाहिशों ने दोनों के बीच आत्मीय लगाव  पैदा कर दिया था. केरल और नैनीताल की भौगोलिग़ दूरी ने उन दोनों के दिलों को बेहद करीब ला दिया था. आज के दौर में यह संभव नहीं. आज के प्यार में मिलने की ख्वाहिशें होती ही कहाँ है. क्यूंकि स्कूल और कॉलेज में दोनों साथ-साथ रहते हैं. उसके बाद देर रात तक किसी रेस्तरां, पार्टी या बार में समय बिताते हैं. रात में जब तक जागते हैं, फ़ोन पर बातें होती रहती है. अगली सुबह तो फिर मिलना है ही. ऐसे में मिलने की ख्वाहिशें पैदा होने का समय ही कहाँ मिलता है! आज भौगोलिक दूरियां एक-दूसरे को करीब नहीं लाती, बल्कि सदा के लिए दूर कर देती है. नए शहर में  उसे नया प्यार मिल जाता है. वाकई...वक़्त की कसौटी पर कितना अप्रासंगिक हो गया है वह फिल्म!!!!!!!!!
फिल्म में एक संवाद है, जो पूरी फिल्म का निचौड़ है. एक दृश्य में लड़की कहती है (ठीक से याद नहीं)- "लोगों का प्यार आँखों से शुरू होकर दिल तक पहुँचता है. पर हमारा प्यार दिल से शुरू हो कर आँखों तक पहुंचेगा." इस संवाद के पहले भाग की प्रसंगिकता भले ही थोड़ी बहुत बची हो, पर दूसरा भाग तो आज महज़ कल्पना ही लगता है. सच्चाई तो यह है कि आज का प्यार आँखों से नहीं, बल्कि चेहरे से शुरू होकर, दिल तक नहीं पहुँचता है, बल्कि बेडरूम में जाकर ख़त्म हो जाता है.  

6.1.11

6 दिसंबर 2010 को दिग्विजय सिंह का एक बयान आया था. उनहोंने यह बयान राष्ट्रीय रोजनाम सहारा के समूह सम्पादक अज़ीज़ बर्नी के एक पुस्तक के विमोचन समारोह में कही थी. उन्होंने कहा था कि 26/11 की घटना के महज़ तीन घंटे पूर्व हेमंत करकरे ने मुझ से फ़ोन पर बात की थी. इस बातचीत में श्री करकरे ने मुझसे कहा था कि हिन्दू कट्टरपंथी से मेरी जान को खतरा है. साथ ही उन्होंने ये भी कहा था कि में बहुत तकलीफ में हूँ. मेरा 17 वर्षीय बेटा, जो विद्यार्थी है, उसे दुबई में एक बड़ा Contracter  बता कर बदनाम किया जा रहा है. मेरे परिवार वाले जो नागपुर में रहते हैं, उन्हें बम से उड़ाने कि धमकियां दी जा रही है.
 जैसे ही दिग्विजय सिंह का यह बयान आया, राजनीतिक हलकों में भूचाल आ गया. जब ये बात संघी कानों तक पहुंची तो उनकी भृकुटियाँ तन गयी. दिग्विजय सिंह के निष्ठां पर सवाल उठाए गए और उन्हें देशद्रोही तक कि संज्ञा दे दी गयी. यह भी कहा गया कि दिग्विजय सिंह दोयम दर्जे कि सियासत कर रहे हैं. कांग्रेस तो पहले से ही मुश्किलों में घिरी थी, इसलिए उन्होंने श्री सिंह के इस बयान से ही पलड़ा झाड लिया. बहरहाल दिग्विजय सिंह अपने बयान पर डटे रहे और ठीक 28 दिन बाद 4 जनवरी 2011 को बातचीत के कॉल डिटेल बतौर सबूत ज़ारी किये. गौरतलब है कि महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर.आर पाटिल ने विधानसभा में बयान दिया था कि राज्य पुलिस के पास करकरे और सिंह के बीच 26 नवम्बर 2008 को हुई बातचीत का कोई रिकॉर्ड नहीं है. दिग्विजय सिंह द्वारा ज़ारी कॉल डिटेल से यह पता चलता है कि फ़ोन ATS मुख्यालय के लैंडलाइन  नंबर 022-23087366 से किया गया था. अब भाजपा यह कह रही है कि इससे यह साबित नहीं होता कि ATS मुख्यालय से कॉल करने वाले व्यक्ति स्वयं करकरे ही थे. खैर यह सियासत है और सियासत में पैतरेबाजी अपने शबाब पर होती है. आखरी दम तक.
           हालाँकि दिग्विजय सिंह के बयान में गंभीरता थी, पर ऐसी क्या बात कह दी उन्हों ने जो एक दम अनूठी और नयी थी. कम से कम हमारी मीडिया को तो ये पता था ही कि मालेगांव ब्लास्ट  के सिलसिले में हेमंत करकरे को लगातार धमकियां मिल रही थी. ऐसे समाचार राष्ट्रीय मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित भी हुए. जो कुछ 26/11 की घटना से पूर्व हेमंत करकरे ने दिग्विजय सिंह से कही, वही बात उन्होंने एक दिन पूर्व अपने एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी श्री जुलियू रिबौरो से मुलाकात करके कही थी. यह समाचार अंगरेजी दैनिक Times Of India के अतिरिक्त अन्य समाचारपत्रों में भी प्रकाशित हिया था. इस समाचार का शीर्षक था- करकरे अडवानी द्वारा लगाये आरोप से दुखी थे: जुलियू रिबौरो.
             Times Of India में प्रकाशित यह खबर जुलियू रिबौरो के हवाले से थी. इसमें श्री रिबौरो ने कहा था-" हेमंत करकरे पिछले मंगलवार को मुझसे मिलने आये थे. एल.के अडवानी के इस आरोप से उन्हें बहुत दुख पहुंचा था कि उनके नेतृत्व में ATS मालेगांव ब्लास्ट के केस में राजनीतिक प्रभाव और अव्यावहारिक ढंग से कार्य कर रहा है. अडवानी जैसे वरीष्ठ नेता के हिंदुत्व  के झंडा बरदार बनने वालों के साथ मिलकर आरोप लगाने ने उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया था. ........."
यानि इतना तो था ही कि हेमंत करकरे संघ के रवैये से आहात थे. पर जब इसी बात का खुलासा दिग्विजय सिंह
ने किया तो हंगामा बरपा हो गया. मीडिया ने भी इस मामले को खूब हवा दी, जैसे यह एकदम नयी बात हो. वो भी तब, जब संसद JPC कि मांग को लेकर लगातार हंगामे कि भेंट चढ़ रही थी, विकिलीक्स दिन-प्रतिदिन नए खुलासे करके दुनिया भर कि मीडिया का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रहा था, और इस बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बेल्जियम तथा जर्मनी कि महत्वपूर्ण यात्रा भी कि थी. 
                     आपलोगों को शायद याद होगा कि 26/11 कि घटना के बाद तत्कालीन अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ए.आर.अंतुले ने हेमंत करकरे कि शहादत पर सवाल उठाए थे. तब देशव्यापी विरोध प्रदर्शन हुआ था. जगह-जगह अंतुले के पुतले जलाये गए. लोगों के हाथों में पोस्टर था, जिस पर लिखा था- ए.आर अंतुले आतंकवादी है.......ए.आर अंतुले देशद्रोही है. दिग्विजय सिंह के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. 
खैर दिग्विजय सिंह ने अपने बयान के पक्ष में सबूत ज़ारी कर दिए हैं. लेकिन एक सवाल आज भी कितना ज्वलंत लगता है- 26/11 -किस की साजिश, क्या उठेगा पर्दा?

3.1.11

माननीय प्रधानमन्त्री महोदय! नव वर्ष और नए दशक की हार्दिक शुभकामनाएं. पत्र थोड़ा विलंब से लिख रहा हूँ. दरअसल ज़रा व्यस्तता का दौर चल रहा था जो अब टल चुका है. यह पत्र मात्र बधाई संदेश नहीं है, बल्कि शीर्षक पढ़ कर आपको कुछ-कुछ अंदाजा हो गया होगा.
यह आपके प्रधानमंत्रित्व काल की दूसरी पारी है. कुल मिला कर सातवाँ साल. मैं यहाँ आपके पहले कार्यकाल की बात नहीं कर रहा  और न ही दूसरे कार्यकाल के पहले वर्ष की बात करने वाला हूँ. वस्तुतः मैं वर्ष 2010 के संदर्भ में आपसे संवाद करना चाहता हूँ.
वर्ष 2010 को घपलों और घोटालों का पर्दाफाश करने वाले साल के रूप में याद किया जाएगा. Commonwealth Games के आयोजन में घोटालों की जो तस्वीर उभरी, उसने आपकी सरकार के शाख पर सीधे बट्टा लगा दिया. घोटालों का होना ज्यादा आश्चर्य की बात नहीं है. आश्चर्य तो इस बात का है कि ये सारा खेल आपकी नाक के नीचे होता रहा और आपको इसकी गंध तक न मिली. यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि एक ऐसा देश जो विश्व कि महाशक्ति बनने का सपना संजोता है, लेकिन एक खेल के आयोजन में उनकी साँसे फूलने लगती है.
2G स्पेक्ट्रम ने तो घोटाले कि परिभाषा ही बदल दी. घोटाले कि राशि इतनी बड़ी थी कि इसे अंकों में लिखने में माथे कि नसें दुख जाएँ. यह घोटाला आपके लिए भी राजनीतिक मुश्किलों वाला रहा. संयुक्त संसदीय समिती (JPC) की मांग पर विपक्ष ऐसा अडिग हुआ कि संसद का शीतकालीन सत्र चला ही नहीं. आपको तो खुद इस मांग का स्वागत करना चाहिए. पर आपकी जिद ने विपक्ष में संशय ही पैदा किया. हालांकि आपने संसद की लोक लेखा समीति (PAC) के समक्ष खुद पेश होने की पेशकश की, बावजूद इसके विपक्ष ने अपना रुख नहीं बदला. पर यदि आपको PAC पर आपत्ति नहीं तो, JPC पर ऐतराज़ क्यूं? विपक्ष के तेवर से यह संकेत भी मिल रहा है कि फरवरी में होने वाले संसद के बज़ट सत्र पर भी JPC के छीटें पड़ेंगे. मेरे कहने का आशय यह है कि 2010 में हुए इन घोटालों पर 2011 में राजनीतिक टकराव अवश्य होगा.
सबसे मुश्किल घड़ी में ही अच्छे नेता की सबसे अच्छी खूबी सामने आती है. 2011 आपके लिए राजनितिक मुश्किलों वाला साल रहने वाला है. ऐसे में देश को इंतज़ार रहेगा आपकी सबसे अच्छी खूबी का. अक्सर आपके कम बोलने या चुप रहने पर लोग चुटकियाँ लेते हैं. लेकिन में इस फलसफे में यकीन करता हूँ कि-
परिंदों की परवाज़ होती है ऊँची
ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं,
वो लोग खामोश रहते हैं अक्सर
ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं.
वर्ष 2011 में आपके "हुनर" का बोलना बेहद ज़रूरी हो गया है. क्यूंकि अब लोग सवाल करने लगे हैं कि कहाँ हैं डॉ. मनमोहन सिंह? लोग यह भी पूछने लगे हैं कि यह कैसी सरकार है जो ये तय नहीं कर पाती कि बी.टी बैगन अच्छा है या बुरा? देश में सड़कें ज्यादा होने चाहिए या पेड़?
आपकी पहचान एक ऐसे शख्स के रूप में है, जिसकी गिनती विश्व मंच पर पूरब के एक समझदार व्यक्ति के रूप में होती है. एक ऐसी  दुनिया में जहाँ सबसे प्रभावशाली नेता अपने उम्र के चौथे दशक में हैं, वहाँ आपकी स्तिथि एक बुजुर्ग और अनुभवी व्यक्ति की है. लेकिन अब देश में एक युवा और तेजतर्रार नेता कि ज़रुरत महसूस कि जाने लगी है, क्यूंकि जब भी आपका सामना राष्ट्रीय आपात स्तिथियों से होता है, तो आप उससे निपटने में अक्षम प्रतीत होते हैं. महंगाई, माववादी चुनौति, विदेश नीति में भटकाव, कश्मीर संकट, अटका सामाजिक एजेंडा, आंतरिक कलह, अनिर्णय और भ्रष्ट्राचार ने UPA को पंगु बना दिया है. जन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए आपको ज़ोरदार पहल करनी होगी.
जानता ने आपको जिस विश्वास के साथ जनादेश दिया, उससे यही लगता है कि आप अपना दूसरा कार्यकाल भी पूरा कर लेंगे. यदि संभव हुआ तो तीसरी बार भी सत्ता में आ जाएँ. लेकिन इस लंबे कार्यकाल का क्या फायदा. संसार में ऐसे कितने ही व्यक्ति हैं, जिसने सबसे लंबे समय तक जीवित रहने का रिकॉर्ड बनाया. इनके नाम गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में तो दर्ज है, पर लोगों कि जुबां पर नहीं है. वहीं स्वामी विवेकानंद अपने जीवन का 40वां बसंत भी नहीं देख पाए. भगत सिंह मात्र 23 वर्ष की उम्र में और खुदीराम बोस 19 वर्ष की उम्र में संसार से कूच कर गए. इनका नाम भले ही रिकॉर्ड बुक में दर्ज न हो, पर लोगों की जुबां पर है. कहने का आशय मात्र इतना है की जिंदगी लंबी नहीं बड़ी होनी चाहिए.
पुनः नए साल की हार्दिक शुभकामनाओं सहित.
आपकी सल्तनत का बाशिंदा.
शकील "जमशेद्पुरी"  
                        

2.1.11

पलकों से आसमां पर एक तस्वीर बना डाली.
उस तस्वीर के नीचे एक नाम लिख दिया;
फीका है इसके सामने चाँद ये पैगाम लिख दिया

सितारों के ज़रिये चाँद को जब ये पता चला
एक रोज़ अकेले में वो मुझसे उलझ पड़ा
कहने लगा कि आखिर ये माजरा क्या है
उस नाम और चेहरे के पीछे का किस्सा क्या है.

मैं ने कहा- ऐ चाँद क्यूं मुझसे उलझ रहा है तूं
टूटा तेरा गुरूर तो मुझ पर बरस रहा है तूं.
वो तस्वीर मेरे महबूब की है, ये जान ले तूं
तेरी औकात नहीं उसके सामने, यह मान ले तूं.

ये सुन के चाँद ने गुसे में ये कहा-
अकेला हूँ काइनात में, तुझे शायद नहीं पता.
लोग मवाजना करते हैं मुझसे अपनी महबूब का
चेहरा दिखता है मुझ में हरेक को अपनी माशूक का.

मैंने कहा- ऐ चाँद चल तेरी बात मान लेता हूँ,
पर तेरे हुस्न का जायजा मैं हर शाम लेता हूँ
मुझे लगता है आइना तुने देखा नहीं कभी.
एक दाग है तुझमें जो उस चेहरे मैं है नहीं.

यह सुन के चाँद बोला ये मोहब्बत कि निशानी है.
इसके ज़रिये मिझे नीचा न दिखाओ ये सरासर बेमानी है.
जिस शाम लोगों को मेरी दीद नहीं होती
अगले रोज़ तो शहर में ईद नहीं होती.

मैंने कहा ऐ चाँद, तू ग़लतफ़हमी का है शिकार.
सच्चाई ये है कि तूं मुझसे गया है हार.
एक रोज़ मेरा महबूब छत पर था और शाम ढल गयी.
अगले दिन शहर में ईद कि तारीख बदल गयी.
ये आखरी बात ज़रा ध्यान से सुनना.
हो सके तो फिर अपने दिल से पूछना.

यह एक हकीक़त है कोई टीका टिप्पणी नहीं है.
जिस चांदनी पे इतना गुरूर है तुझको,
वो रौशनी भी तो तेरी अपनी नहीं है.