ढाक के तीन पात। फिर वही कहानी। सुपर-8 में पहुंचना बड़ी बात नहीं। वजह, हर ग्रुप में एक कमजोर टीम होती है। तारीफ तो तब है जब सेमीफाइनल में पहुंचें। भारतीय टीम ने सुपर-8 से बाहर होने की हैट्रिक पूरी की। बार-बार, हर बार वही कहानी। पहले हार कर बाहर हुए, इस बार जीत कर भी बाहर हो गए। जाहिर है, कहीं न कहीं, कुछ न कुछ कमी तो है। खिलाड़ी बदलो, कप्तान बदलो, युवाओं को ज्यादा मौका दो, चाहे कुछ भी करो। अब भारतीय क्रिकेटप्रेमी बदलाव चाहते हैं। मोहम्मद शकील
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भारत को लक्ष्य मिला कि वह दक्षिण अफ्रीका को 121 से पहले रोक ले तो उन्हें समीफाइनल में जगह मिल जाएगी। भारत में क्रिकेट के चाहने वालों ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी। उन्हें पूरा विश्वास था कि भारत दक्षिण अफ्रीका को 121 से पहले रोक लेगा। उनका यह विश्वास तब और भी पुख्ता हो गया जब पहले ही ओवर में हाशिम अमला पवेलियन लौट गए। नियमित अंतराल पर विकेट गिरते रहे और भारतीयों की उम्मीदें परवान चढ़ने लगीं। पर उस रात फॉफ डू प्लेसिस भारत के लिए विलेन बनकर सामने आए। 38 गेंदो पर 65 रन ठोक डाले। जब उनका विकेट मिला तब तक बहुत देर हो चुकी थी। रॉबिन पीटरसन ने जैसे ही एक रन लेकर स्कोर 122 किया, भारत में सन्नाटा पसर गया। कोहली और रोहित शर्मा आंसू नहीं रोक पाए। क्रिकेट इतिहास में यह दर्ज होगा कि भारत ने दक्षिण अफ्रीका को एक रन से हराया। पर एक ऐसी जीत जिन्होंने विजेता होने का भाव पैदा नहीं किया।
टी-20 विश्व कप में लगातार तीसरी बार भारत की दुर्गति हुई। 2011 विश्व कप जीतने के बाद भारत का प्रदर्शन निरंतर गिरता चला गया है। अब सवाल उठना तो लाजमी है। बोर्ड के सामने चुनौती भी है और अवसर भी कि वह भारतीय क्रिकेट के हित में कुछ कठोर निर्णय लें। संदीप पाटिल की अध्यक्षता वाली नई चयन समिति को तय करना होगा कि वे मौजूदा टी-20 टीम में आमूलचूक बदलाव चाहते हैं या कुछ सीनियर खिलाड़ियों को क्रमबद्ध तरीके से विदाई देना चाहेंगे।
फिटनेस और चयनइसे आप क्या कहेंगे कि श्रीकांत की अगुवाई वाली चयन समिति पर लगातार सवाल उठे। विश्व कप भी इससे अछूता नहीं रहा। भारत के प्रदर्शन को इनसे भी जोड़कर देखा जा सकता है। कैंसर से उबर कर युवराज ने वापसी की। मीडिया में युवराज की वापसी को भावनात्मक रूप से ऐसे पेश किया गया मानों वह जीत और हार की दीवार हों। युवराज का प्रदर्शन भले ही खराब न रहा हो पर युवराज को अभी पूरी तरह ़फिट होने में समय लगेगा। युवराज की वापसी को भावनाओं से जोड़कर देखा गया और उन्हें विश्व कप टीम का अभिन्न अंग माना गया। सच्चाई तो यह है कि मैच भावनाओं से नहीं, फिटनेस और प्रदर्शन से जाता जाता है। जहीर खान का भी हाल वैसा ही है। अपने चार ओवर फेंकने के बाद जहीर मैदान पर धीमे पड़ गए। सहवाग कितने ़फिट हैं और कितनी गंभीरता से बल्लेबाजी कर पाते हैं, इसकी भी समीक्षा होनी चाहिए। अगर गंभीर का खराब फार्म पिछले एक साल से जारी है तो क्या उन्हें कुछ समय बाहर बैठ कर घरेलू क्रिकेट नहीं खेलना चाहिए। पीयूष चावला के बजाय किसी और युवा स्पिनर को टीम में जगह क्यों नहीं दी गई। क्यों आईपीएल में रनों का अंबार लगाने वाले अजिंक्य रैहाणो भारतीय टीम में नहीं दिखे। ऐसी क्या मजबूरी है कि कप्तान धोनी का झुकाव बालाजी के प्रति हो ही जाता है। क्या इंग्लैंड के बल्लेबाजों को धाराशाई करने वाले भज्जी को भी अश्विन के बराबर मौके नहीं मिलने चाहिए थे। आखिर रोहित शर्मा में ऐसी क्या खासियत है कि औसत प्रदर्शन (5 मैच, 82 रन) के बाद भी उन्हें अंतिम एकादस में शामिल किया गया। आखिर उनकी जगह मनोज तिवारी को क्यों नहीं आजमाया गया।
बदिकस्मती: किस्तम से नहीं जीती जाती वर्ल्ड कपविश्व कप में भारत के अभियान का मूल्यांकन करने पर जेहन में सबसे पहले गूंजने वाला शब्द है बदकिस्मती। देखा जाए तो भारतीय टीम उतना भी बुरा नहीं खेली। टीम ने इंग्लैंड को हराया, पाकिस्तान को हराया और दक्षिण अफ्रीका को भी शिकस्त दी। कुल पांच मैचों में से 4 में जीत दर्ज की। फिर भी टीम सेमीफाइनल में नहीं पहुंच पाई। वहीं वेस्टइंडीज ने 5 मैचों में सिर्फ दो जीत दर्ज कर सेमीफाइनल में पहुंची। इन आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि किस्मत ने भारत का साथ नहीं दिया। लेकिन बदिकस्मती को भुलाकर थोड़ी दूरिदर्शता भी जरूरी है। विश्व कप जैसे बड़े टूर्नामेंट किस्मत के सहारे नहीं जीता जाता। सबको पता था कि सुपर आठ में भारत ग्रुप ऑफ डेथ में है, जहां नेट रन रेट से लेकर एक-एक रन बाद में बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाएंगे। इसके बावजूद भारत ने गणित के तमाम पहलूओं पर विचार नहीं किया। जब पाकिस्तान के खिलाफ जीत पक्की हो गई थी तो टीम के उप-कप्तान विराट कोहली और युवराज को जल्दी जीत का लक्ष्य भेदना चाहिए था। पर दोनों ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। यानी कमियां सिर्फ खिलाड़ियों के स्तर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि रणनीति बनाने में भी भारत विफल रहा।
हार के बाद कमियों को निकालना सबसे आसान काम है। खेल की रिपोर्टिग करने से भी ज्यादा सरल। पर कमियां निकालना भी जरूरी है, ताकि आगे चलकर इसे सुधारा जा सके। इस समय भारतीय टीम में चैंपियन जैसी कोई बात नहीं रह गई है। समय की मांग यही कि बदलाव भरे कुछ कठोर फैसले लिए जाएं। हर टीम बदलाव के दौर से गुजरी है। आस्ट्रेलिया का उदाहरण सबसे ताजा है। रिकी पोंटिंग की अगुवाई में कंगारूओं ने क्रिकेट पर एकक्षत्र राज किया। आज आस्ट्रेलिया की टीम कितनी बदल चुकी है। इस विश्व कप में खेलने वाली आस्ट्रेलियाई टीम में न ब्रेट ली थे, न मिशेल जॉनसन और न ही माईकल क्लार्क। भारतीय क्रिकेट में यह बदलाव का सबसे सही समय है, ताकि आने वाली पीढ़ी को क्रिकेट की यह गौरवशाली विरासत सही सलामत सौंपी जा सके।
विश्व चैंपियन बनने के बाद से लगातार गिरी है शाखभारतीय टीम ने 2011 में एकदिवसीय का विश्व कप जीता। पर इसके बाद से टीम लगातार रसातल की ओर जा रही है। इंग्लैंड दौरे पर टीम का पूरी तरह से सूपड़ा साफ हो गया। टेस्ट, वनडे और टी-20 के सभी मैच गंवाए। इसके बाद आस्ट्रेलिया दौरे पर भी टीम ने 4 टेस्ट गंवा दिए। वहीं आस्ट्रलिया में हुई त्रिकोणीय सीरीज में भारत फाइनल में पहुंचने में नाकाम रहा। एशिया कप में भारत बंग्लादेश से हार कर खिताब की दौड़ से बाहर हो गया। और अब एक बार फिर टी-20 विश्व कप के सेमीफाइनल में नहीं पहुंच पाए। इस दौरान भारत सिर्फ वेस्टइंडीज और न्यूजीलैंड जैसे कमजोर टीम के विरुद्ध ही सफलता पाने में कामयाब रहा। अगर टीम का प्रदर्शन लगातार गिर रहा है तो इसकी कोई न कोई वजह अवश्य होगी। इन वजहों को ढूंढने और उसे दूर करने की चुनौती नए चनकर्ताओं के सामने रहेगी।
..तो पाकिस्तान के पास ऐसी क्या रणनीति है?भारत और पाकिस्तान का क्रिकेट इतिहास समकालीन ही कहा जाएगा। पिछले कुछ वर्षो में पाकिस्तानी क्रिकेट काफी उथल-पुथल वाले दौर से गुजरी है। टीम पर मैच फिक्सिंग का कलंक लगा और खिलाड़ी प्रतिबंधित हुए। वहीं 2008 में श्रीलंका टीम पर हुए हमले के बाद किसी भी देश ने पाकिस्तान का दौरा करने से इंकार कर दिया। क्रिकेट की बाकी दुनिया से पाकिस्तान पूरी तरह अलग-थलग हो गया। मुंबई हमले के बाद भारत के साथ भी उनके क्रिकेट संबंध बाधित हुए। उन्हें आईपीएल से भी बेदखल कर दिया गया। इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद पाकिस्तान अब तक हुए टी-20 विश्व कप के चारों संस्करण के फाइनल में पहुंचा है। दो बार फाइनल का सफर तय किया और एक बार चैंपियन रहा है। दूसरी ओर भारतीय क्रिकेट के साथ काफी समय से सबकुछ ठीक-ठाक रहा है। आईपीएल के दौरान भारतीय खिलाड़ियों का पराक्रम देखते ही बनता है। पर पता नहीं जब देश के लिए खेलते हैं तो बत्ती क्यों गुल हो जाती है। यहां पाकिस्तान का उदाहरण देने का मतलब बस इतना है कि जब वे इनती विकट परिस्थितियों के बावजूद अपनी क्रिकेट को पटरी पर रखे हुए है, तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते। हमारे पास कमी किसी भी चीज की नहीं है। न प्रतिभा की न पैसे की। बस जरूरत है तो सिर्फ सटीक रणनीति की।