23.1.11


फोटो गूगल के सौजन्य से.

बीजेपी एक बार फिर अपनी घिसी-पिटी सियासत लेकर मैदान में है. वह 26 जनवरी को लाल चौक पर तिरंगा फहराने की जिद पर अड़ी हुई है. इससे पहले 1992 में बीजेपी के एक अग्रिम पंक्ति के नेता मुरली मनोहर जोशी ने इसी तरह के एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. तब उनहोंने अपनी 42 दिनों की मैराथन यात्रा के तहत पूरे देश में घूम-घूम कर देशभक्ति का ताबड़तोड़ प्रोपेगेंडा किया था. पर उस वक़्त भी बीजेपी के हाथ कुछ नहीं लगा. ना तो कश्मीर मुद्दे का कोई समाधान हुआ, ना वहां के पंडितों का मसला हल हुआ, और न ही वहाँ के हिंसा पर उतारू तबके के संकल्प में कोई कमी आई.  बीजेपी की ये नीति समझ से परे है कि आखिर कश्मीर एक राष्ट्रीय समस्या है, पर वह उसे सांप्रदायिक रंग देने पर क्यूं तुली हुई है? इससे तो वहां के अलगाववादियों को हौसला मिलता है, जो कश्मीर को एक धार्मिक मुद्दा बनाने पर आमादा हैं. एक बार फिर बीजेपी ने लाल चौक को निशाना बनाया है. आईए इसके पीछे के निहितार्थ का जायजा लेते हैं.
सबसे पहले तो हमें बीजेपी के परेशानियों को समझना होगा. असीमानंद के कथित स्वीकोरोक्ति के बाद बीजेपी के आला नेता ज़हनी तौर पर बहुत परेशान हो गए हैं. आतंकवादी गतिविधियों में संघ परिवार का नाम आने से अब बीजेपी के नेताओं के मुंह में वो ज़हर नहीं रहा, जो वो अक्सर दहशतगर्दी के नाम पर उगला करते थे. कल तक जिनके होंठ "इस्लामी आतंकवाद" कहते-कहते दुखते नहीं थे, आज आतंकवाद को किसी धर्म से जोड़ने पर ऐतराज़ कर रहे हैं.  बीजेपी के वो नेता जो अपने सांप्रदायिक  नीतियों पर धर्मनिरपेक्षता का मखमली पर्दा डाल कर कहते थे कि यह सच है कि सारे मुस्लिम आतंकवादी नहीं होते, पर सारे आतंकवादी मुस्लिम होते हैं. अब तो यह कहने का मौका भी उनके हाथ में नहीं रहा. इसके उलट अब उन्हें यह सुनने को मिल रहा है कि यह सच है कि सारे संघी आतंकवादी नहीं है, लेकिन जितने आतंकवादी पकड़े जा रहे हैं, वो संघी ही क्यूं है? ऐसे में बीजेपी घबरा गयी है और इसी घबराहट में वह 10 साल पुरानी सियासत को फिर से जिंदा करने की फ़िराक में है. इस दिशा में उन्होंने लाल चौक पर तिरंगा फहराने कि घोषणा कर के वहां की हालत बिगाड़ने कि कोशिश कर रही है. 
सवाल उठता है कि आखिर लाल चौक ही क्यूं? भारत में ऐसे कई क्षेत्र हैं जहाँ तिरंगा नहीं फहराया जाता. वहां सिर्फ लाल झंडे की तूती बोलती है. बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, छत्तीसगढ़ और यहाँ तक कि मध्यप्रदेश के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में 15 अगस्त और 26 जनवरी पर तिरंगा नहीं फहराया जाता है. वहां तिरंगे कि ज़गह लाल झंडा चलता है. वोट देने वालों का क्या हश्र होता है, यह किसी से छुपा नहीं है. क्या बीजेपी के नेताओं में इतनी हिम्मत है कि वो इन इलाकों में जाकर तिरंगा फहराए?  सच्चाई तो यह है कि इन इलाकों में तिरंगा फहराने से उन्हें कोई सियासी लाभ मिलने वाला नहीं है. अगर बीजेपी दोस्ती और देशभक्ति कि भावना से लाल चौक पर तिरंगा फहराना चाहती है, तो उन्हें यह काम नक्सली इलाकों में भी करना चाहिए.
नक्सली क्षत्रों में तो भारत का कानून तक नहीं चलता है. वहां तो उन्होंने अपनी अदालतें कायम कर रखी है. बजाब्ता उनकी जेलें भी हैं. वहां तिरंगा फहराना किसी के बस की बात नहीं है. इन इलाकों के मुकाबले तो कश्मीर में हालात फिर भी बेहतर है. श्रीनगर के बख्शी स्टेडियम और ज़म्मू के मौलाना आज़ाद स्टेडियम में गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर झंडोत्तोलन के कार्यक्रम होते हैं. कहने का आशय यह है कि तिरंगे की ज़रुरत लाल चौक से ज्यादा नक्सलियों के लाल इलाकों में है. क्या बीजेपी इस बात को समझेगी?
बीजेपी की जानिब से लाल चौक पर तिरंगा फहराने की घोषणा से ज़म्मू-कश्मीर की भारतीय जनता पार्टी यूनिट बहुत खुश है. पर असली ख़ुशी तो वहां के अलगाववादी गुटों को मिली है. उन्हें पता है की ऐसा कर के बीजेपी उन्हीं का काम आसान कर रही है. अलगाववादी तो ये चाहते हैं कि कश्मीर मसले को धार्मिक रूप दिया जाय. कभी उन्होंने कश्मीरी पंडितों पर ज़ुल्म ढाए और उन्हें घाटी छोड़ने पर मजबूर कर दिया. क्यूंकि वो चाहते थे कि कश्मीर मसले को मज़हबी रंग दिया जाए. बीजेपी ने भी हर बार अलगाववादियों की शाजिसों को कामयाब करने का ही काम किया. उन्होंने सिर्फ कश्मीरी पंडितों पर ढाए गए ज़ुल्म का विरोध किया. क्या अलगाववादियों ने घाटी के मुसलामानों पर ज़ुल्म नहीं ढाए? क्या कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की तुलना में ज्यादा कश्मीरी मुसलमानों का क़त्ल नहीं हुआ? क्या अनगिनत कश्मीरी मुसलमान वादी छोड़ने पर मजबूर नहीं हुए हैं? क्या अनगिनत कश्मीरी मुसलमान नहीं हैं, जो फिर से घाटी में जाकर बसने से डरते हैं? क्या कश्मीर में मारे गए मुस्लिम रहनुमाओं को वहीं के दहशत पसंदों ने नहीं मारा?
एक बेहद अहम चीज यह कि 1992 में लाल चौक पर तिरंगा फहराने के कुछ ही वर्षों बाद बीजेपी को सत्ता में आने का मौका मिला. इस दौरान उन्होंने न तो कश्मीर मसले का कोई समाधान किया और न ही वहां से पलायन पर मजबूर कश्मीरी पंडितों के दुखों को ही दूर किया. तो फिर आज किस मुंह से बीजेपी लाल चौक को अपनी सांप्रदायिक सियासत का अखाड़ा बनाना चाहती है? फिरकापरस्ती का ये मुखौटा ज्यादा दिन तक साथ देने वाला नहीं है. बीजेपी को चाहिए कि वो अपनी ख़राब होती छवि को सुधारने के लिए इसमें देशभक्ति के असली रंग भरे. चेहरे पर देशभक्ति का मुखौटा लगा कर जोकर बनने की कोशिश न करे. 

20.1.11

फोटो गूगल के सौजन्य से.
शीर्षक थोड़ा चौकाने वाला हो सकता है। आप सोच रहे होंगे कि एक ऐसे शख्स से हम क्या सीख सकते हैं, जिन्होंने देश में धमाके की बात स्वीकार की हो। जो बम का जवाब बम से देने जैसी सोच की नुमाईंदगी करता हो। और जिन्होंने निर्दोषों की जान लेना ही अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया था। पर मैं असीमानंद के गुनाहों का तजकिरा नहीं करने जा रहा हूँ। आज मैं असीमानंद के एक अन्य पहलू की बात कर रहा हूँ, जिससे हम काफी कुछ सीख सकते हैं। पर इससे पहले बात अब्दुल कलीम नामक युवक की। अब्दुल कलीम मक्का मस्जिद धमाके के आरोप में पिछले डेढ़ साल से जेल में बंद था। इत्तेफाक से असीमानंद को गिरफ्तार करने के बाद उसी जेल में उसी सेल में रखा गया, जिसमें अब्दुल कलीम था। कितना विचित्र दृश्य होगा वह! एक तरफ धमाके का हकीकी गुनाहगार असीमानंद और दूसरी तरफ बेगुनाह अब्दुल कलीम। जेल में मुलाक़ात के दौरान अब्दुल कलीम ने अपने और दिगर बेक़सूर मुस्लिम नौजवानों के सिलसिले में असीमानंद से बात की और उसे बताया की किस तरह बिना किसी ठोस प्रमाण के उन नौजवानों को गिरफ्तार किया गया और उस पर ज़ुल्म ढाए गए। साथ ही अब्दुल कलीम के अच्छे  बर्ताव ने असीमानंद को काफी प्रभावित किया। असीमानंद ने अपने इकबालिया बयान में खुद कहा था कि जेल में अब्दुल कलीम ने उनकी काफी मदद की। उनके लिए खाना व गर्म पानी वगैरह भी लाया करता था। साथ ही नहाने के लिए गर्म पानी भी मुहय्या करता था। इन्हीं चीजों ने असीमानंद के जमीर को झकझोर दिया। असीमानंद ने अपने इकबालिया बयान में कहा कि अब्दुल कलाम के नेक व्यवहार ने उसे गुनाहों का ऐतराफ  करने पर मजबूर कर दिया, ताकि उसली गुनहगारों को सजा मिल सके।
आखिरकार असीमानंद का अंत:करण जाग उठा। अपने गुनाहों का प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने अपने गुनाहों को स्वीकार कर लिया। असीमानंद ने अपने जीवन मूल्यों को नए सिरे से देखा और एक सही रास्ता चुना। उन्होंने इस बात की जरा भी परवाह नहीं की कि उनके इस कदम से उनके आका नाखुश हो सकते हैं। उन्हें बाकी बची जिंदगी जेल के सलाखों के पीछे गुजारनी पड़ सकती है और उनका हश्र सुनील जोशी की तरह भी हो सकता है। अगर उन्हें परवाह थी तो बस अपने जमीर की। उन्होंने अपने अंतरात्मा की सुनी।
असीमानंद के जीवन का यह पहलू हम सबको आत्म-मूल्यांकन करने की प्रेरणा देता है। हमें चाहिए कि हम आत्ममंथन करें और अपनी गलतियों को सुधार लें। वहीं हम अब्दुल कलीम के चरित्र से भी काफी कुछ सीख सकते हैं। उन्होंने नेक व्यवहार का जो रास्ता अपनाया वो इस्लाम की बुनियादी शिक्षाओं में से एक है। उन्होंने नफरत के बजाय मोहब्बत से काम लिया और असीमानंद का हृदय परिवर्तन किया।

मैं खुद भी इस बात को मानता हूं कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता। फिर भी यह सच है कि कुछ हिंदू और कुछ मुस्लिम अपने मार्ग से भटक कर हिंसा का रास्ता अपना लेते हैं। ऎसे लोगों को चाहिए कि वो असीमानंद और अब्दुल कलाम से कुछ सबक लें। यदि वो ऎसा करते हैं तो दुनिया में अमन-चैन निश्चित है। वैसे भी इस दुनिया को प्यार की बहुत जरूरत है। पंक्तियां कितनी सटीक हैं ना!
अब तो एक ऎसा वरक तेरा मेरा ईमान हो
एक तरफ गीता हो जिसमें एक तरफ कुरआन हो
काश ऎसी भी मोहब्बत हो कभी इस देश में
तेरे घर उपवास हो जब मेरे घर रमजान हो
मजहबी झगड़े ये अपने आप सब मिट जाएंगें
और कुछ होकर न गर इंसान बस इंसान हो

19.1.11


    शाम के करीब सात बजे थे. University से रूम पर आया और FM  आन किया. गाना आ रहा था- "पहली-पहली  बार मोहब्बत की है....." गाने की इस बोल को सुनते ही इस फिल्म के दृश्य आँखों के सामने तैरने लगे. यह गाना "सिर्फ तुम"  फिल्म का है. यह फिल्म पिछली सदी के अंतिम दशक के अवसान के समय रिलीज़ हुई थी. 1999 में आयी संजय कपूर और प्रिय गिल अभिनीत यह फिल्म बेहद सफल रही थी.
इस फिल्म को पहली बार मैंने 2003 में देखा था. तब में 9वी कक्षा में पढता था. शुक्रवार को दूरदर्शन पर देखे गए इस फिल्म के दृश्य दिल पर अंकित हो गए. फिल्म में दिखाया गया था कि किस तरह एक लड़का, एक लड़की को बिना देखे, सिर्फ पत्राचार के ज़रिये ही प्यार करने लगता है. यदा-कदा दोनों एक दूसरे से बात भी कर लेते थे, पर चेहरे से अनजान रहते थे. सिर्फ कल्पनाओं में ही दोनों का प्यार परवान चढ़ता है. फिल्म में दोनों एक-दूसरे से कई बार मिलते भी हैं, पर पहचानने से महरूम रह जाते हैं. फिल्म का अंत रेलवे स्टेशन पर होता है, जहाँ लड़की, लड़के को दिए अपने गिफ्ट (स्वेटर) से पहचान लेती है. लड़की का चलती ट्रेन से कूद कर, लड़के के जानिब दौड़ कर आने वाला दृश्य मुझे आज भी रोमांचित करता है.
आज एक दशक बाद यह फिल्म कितना अप्रसांगिक सा लगता है. क्या आज के दौर में ऐसा प्यार संभव है? Facebook, Orkut, E-mail, 3G, Video Confrencing वगैरह के ज़माने में बिना एक-दूसरे को देखे प्यार मुमकिन है? प्यार का स्वरुप कितनी तेज़ी से बदला है और तकनीक ने इनके मूल्यों पर भी असर डाला है. उस फिल्म में दोनों के मिलने की ख्वाहिश या एक-दूसरे को देखने की इच्छा अपने चरम पर होती थी. इन्हीं ख्वाहिशों ने दोनों के बीच आत्मीय लगाव  पैदा कर दिया था. केरल और नैनीताल की भौगोलिग़ दूरी ने उन दोनों के दिलों को बेहद करीब ला दिया था. आज के दौर में यह संभव नहीं. आज के प्यार में मिलने की ख्वाहिशें होती ही कहाँ है. क्यूंकि स्कूल और कॉलेज में दोनों साथ-साथ रहते हैं. उसके बाद देर रात तक किसी रेस्तरां, पार्टी या बार में समय बिताते हैं. रात में जब तक जागते हैं, फ़ोन पर बातें होती रहती है. अगली सुबह तो फिर मिलना है ही. ऐसे में मिलने की ख्वाहिशें पैदा होने का समय ही कहाँ मिलता है! आज भौगोलिक दूरियां एक-दूसरे को करीब नहीं लाती, बल्कि सदा के लिए दूर कर देती है. नए शहर में  उसे नया प्यार मिल जाता है. वाकई...वक़्त की कसौटी पर कितना अप्रासंगिक हो गया है वह फिल्म!!!!!!!!!
फिल्म में एक संवाद है, जो पूरी फिल्म का निचौड़ है. एक दृश्य में लड़की कहती है (ठीक से याद नहीं)- "लोगों का प्यार आँखों से शुरू होकर दिल तक पहुँचता है. पर हमारा प्यार दिल से शुरू हो कर आँखों तक पहुंचेगा." इस संवाद के पहले भाग की प्रसंगिकता भले ही थोड़ी बहुत बची हो, पर दूसरा भाग तो आज महज़ कल्पना ही लगता है. सच्चाई तो यह है कि आज का प्यार आँखों से नहीं, बल्कि चेहरे से शुरू होकर, दिल तक नहीं पहुँचता है, बल्कि बेडरूम में जाकर ख़त्म हो जाता है.  

6.1.11

6 दिसंबर 2010 को दिग्विजय सिंह का एक बयान आया था. उनहोंने यह बयान राष्ट्रीय रोजनाम सहारा के समूह सम्पादक अज़ीज़ बर्नी के एक पुस्तक के विमोचन समारोह में कही थी. उन्होंने कहा था कि 26/11 की घटना के महज़ तीन घंटे पूर्व हेमंत करकरे ने मुझ से फ़ोन पर बात की थी. इस बातचीत में श्री करकरे ने मुझसे कहा था कि हिन्दू कट्टरपंथी से मेरी जान को खतरा है. साथ ही उन्होंने ये भी कहा था कि में बहुत तकलीफ में हूँ. मेरा 17 वर्षीय बेटा, जो विद्यार्थी है, उसे दुबई में एक बड़ा Contracter  बता कर बदनाम किया जा रहा है. मेरे परिवार वाले जो नागपुर में रहते हैं, उन्हें बम से उड़ाने कि धमकियां दी जा रही है.
 जैसे ही दिग्विजय सिंह का यह बयान आया, राजनीतिक हलकों में भूचाल आ गया. जब ये बात संघी कानों तक पहुंची तो उनकी भृकुटियाँ तन गयी. दिग्विजय सिंह के निष्ठां पर सवाल उठाए गए और उन्हें देशद्रोही तक कि संज्ञा दे दी गयी. यह भी कहा गया कि दिग्विजय सिंह दोयम दर्जे कि सियासत कर रहे हैं. कांग्रेस तो पहले से ही मुश्किलों में घिरी थी, इसलिए उन्होंने श्री सिंह के इस बयान से ही पलड़ा झाड लिया. बहरहाल दिग्विजय सिंह अपने बयान पर डटे रहे और ठीक 28 दिन बाद 4 जनवरी 2011 को बातचीत के कॉल डिटेल बतौर सबूत ज़ारी किये. गौरतलब है कि महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर.आर पाटिल ने विधानसभा में बयान दिया था कि राज्य पुलिस के पास करकरे और सिंह के बीच 26 नवम्बर 2008 को हुई बातचीत का कोई रिकॉर्ड नहीं है. दिग्विजय सिंह द्वारा ज़ारी कॉल डिटेल से यह पता चलता है कि फ़ोन ATS मुख्यालय के लैंडलाइन  नंबर 022-23087366 से किया गया था. अब भाजपा यह कह रही है कि इससे यह साबित नहीं होता कि ATS मुख्यालय से कॉल करने वाले व्यक्ति स्वयं करकरे ही थे. खैर यह सियासत है और सियासत में पैतरेबाजी अपने शबाब पर होती है. आखरी दम तक.
           हालाँकि दिग्विजय सिंह के बयान में गंभीरता थी, पर ऐसी क्या बात कह दी उन्हों ने जो एक दम अनूठी और नयी थी. कम से कम हमारी मीडिया को तो ये पता था ही कि मालेगांव ब्लास्ट  के सिलसिले में हेमंत करकरे को लगातार धमकियां मिल रही थी. ऐसे समाचार राष्ट्रीय मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित भी हुए. जो कुछ 26/11 की घटना से पूर्व हेमंत करकरे ने दिग्विजय सिंह से कही, वही बात उन्होंने एक दिन पूर्व अपने एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी श्री जुलियू रिबौरो से मुलाकात करके कही थी. यह समाचार अंगरेजी दैनिक Times Of India के अतिरिक्त अन्य समाचारपत्रों में भी प्रकाशित हिया था. इस समाचार का शीर्षक था- करकरे अडवानी द्वारा लगाये आरोप से दुखी थे: जुलियू रिबौरो.
             Times Of India में प्रकाशित यह खबर जुलियू रिबौरो के हवाले से थी. इसमें श्री रिबौरो ने कहा था-" हेमंत करकरे पिछले मंगलवार को मुझसे मिलने आये थे. एल.के अडवानी के इस आरोप से उन्हें बहुत दुख पहुंचा था कि उनके नेतृत्व में ATS मालेगांव ब्लास्ट के केस में राजनीतिक प्रभाव और अव्यावहारिक ढंग से कार्य कर रहा है. अडवानी जैसे वरीष्ठ नेता के हिंदुत्व  के झंडा बरदार बनने वालों के साथ मिलकर आरोप लगाने ने उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया था. ........."
यानि इतना तो था ही कि हेमंत करकरे संघ के रवैये से आहात थे. पर जब इसी बात का खुलासा दिग्विजय सिंह
ने किया तो हंगामा बरपा हो गया. मीडिया ने भी इस मामले को खूब हवा दी, जैसे यह एकदम नयी बात हो. वो भी तब, जब संसद JPC कि मांग को लेकर लगातार हंगामे कि भेंट चढ़ रही थी, विकिलीक्स दिन-प्रतिदिन नए खुलासे करके दुनिया भर कि मीडिया का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रहा था, और इस बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बेल्जियम तथा जर्मनी कि महत्वपूर्ण यात्रा भी कि थी. 
                     आपलोगों को शायद याद होगा कि 26/11 कि घटना के बाद तत्कालीन अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ए.आर.अंतुले ने हेमंत करकरे कि शहादत पर सवाल उठाए थे. तब देशव्यापी विरोध प्रदर्शन हुआ था. जगह-जगह अंतुले के पुतले जलाये गए. लोगों के हाथों में पोस्टर था, जिस पर लिखा था- ए.आर अंतुले आतंकवादी है.......ए.आर अंतुले देशद्रोही है. दिग्विजय सिंह के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. 
खैर दिग्विजय सिंह ने अपने बयान के पक्ष में सबूत ज़ारी कर दिए हैं. लेकिन एक सवाल आज भी कितना ज्वलंत लगता है- 26/11 -किस की साजिश, क्या उठेगा पर्दा?

3.1.11

माननीय प्रधानमन्त्री महोदय! नव वर्ष और नए दशक की हार्दिक शुभकामनाएं. पत्र थोड़ा विलंब से लिख रहा हूँ. दरअसल ज़रा व्यस्तता का दौर चल रहा था जो अब टल चुका है. यह पत्र मात्र बधाई संदेश नहीं है, बल्कि शीर्षक पढ़ कर आपको कुछ-कुछ अंदाजा हो गया होगा.
यह आपके प्रधानमंत्रित्व काल की दूसरी पारी है. कुल मिला कर सातवाँ साल. मैं यहाँ आपके पहले कार्यकाल की बात नहीं कर रहा  और न ही दूसरे कार्यकाल के पहले वर्ष की बात करने वाला हूँ. वस्तुतः मैं वर्ष 2010 के संदर्भ में आपसे संवाद करना चाहता हूँ.
वर्ष 2010 को घपलों और घोटालों का पर्दाफाश करने वाले साल के रूप में याद किया जाएगा. Commonwealth Games के आयोजन में घोटालों की जो तस्वीर उभरी, उसने आपकी सरकार के शाख पर सीधे बट्टा लगा दिया. घोटालों का होना ज्यादा आश्चर्य की बात नहीं है. आश्चर्य तो इस बात का है कि ये सारा खेल आपकी नाक के नीचे होता रहा और आपको इसकी गंध तक न मिली. यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि एक ऐसा देश जो विश्व कि महाशक्ति बनने का सपना संजोता है, लेकिन एक खेल के आयोजन में उनकी साँसे फूलने लगती है.
2G स्पेक्ट्रम ने तो घोटाले कि परिभाषा ही बदल दी. घोटाले कि राशि इतनी बड़ी थी कि इसे अंकों में लिखने में माथे कि नसें दुख जाएँ. यह घोटाला आपके लिए भी राजनीतिक मुश्किलों वाला रहा. संयुक्त संसदीय समिती (JPC) की मांग पर विपक्ष ऐसा अडिग हुआ कि संसद का शीतकालीन सत्र चला ही नहीं. आपको तो खुद इस मांग का स्वागत करना चाहिए. पर आपकी जिद ने विपक्ष में संशय ही पैदा किया. हालांकि आपने संसद की लोक लेखा समीति (PAC) के समक्ष खुद पेश होने की पेशकश की, बावजूद इसके विपक्ष ने अपना रुख नहीं बदला. पर यदि आपको PAC पर आपत्ति नहीं तो, JPC पर ऐतराज़ क्यूं? विपक्ष के तेवर से यह संकेत भी मिल रहा है कि फरवरी में होने वाले संसद के बज़ट सत्र पर भी JPC के छीटें पड़ेंगे. मेरे कहने का आशय यह है कि 2010 में हुए इन घोटालों पर 2011 में राजनीतिक टकराव अवश्य होगा.
सबसे मुश्किल घड़ी में ही अच्छे नेता की सबसे अच्छी खूबी सामने आती है. 2011 आपके लिए राजनितिक मुश्किलों वाला साल रहने वाला है. ऐसे में देश को इंतज़ार रहेगा आपकी सबसे अच्छी खूबी का. अक्सर आपके कम बोलने या चुप रहने पर लोग चुटकियाँ लेते हैं. लेकिन में इस फलसफे में यकीन करता हूँ कि-
परिंदों की परवाज़ होती है ऊँची
ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं,
वो लोग खामोश रहते हैं अक्सर
ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं.
वर्ष 2011 में आपके "हुनर" का बोलना बेहद ज़रूरी हो गया है. क्यूंकि अब लोग सवाल करने लगे हैं कि कहाँ हैं डॉ. मनमोहन सिंह? लोग यह भी पूछने लगे हैं कि यह कैसी सरकार है जो ये तय नहीं कर पाती कि बी.टी बैगन अच्छा है या बुरा? देश में सड़कें ज्यादा होने चाहिए या पेड़?
आपकी पहचान एक ऐसे शख्स के रूप में है, जिसकी गिनती विश्व मंच पर पूरब के एक समझदार व्यक्ति के रूप में होती है. एक ऐसी  दुनिया में जहाँ सबसे प्रभावशाली नेता अपने उम्र के चौथे दशक में हैं, वहाँ आपकी स्तिथि एक बुजुर्ग और अनुभवी व्यक्ति की है. लेकिन अब देश में एक युवा और तेजतर्रार नेता कि ज़रुरत महसूस कि जाने लगी है, क्यूंकि जब भी आपका सामना राष्ट्रीय आपात स्तिथियों से होता है, तो आप उससे निपटने में अक्षम प्रतीत होते हैं. महंगाई, माववादी चुनौति, विदेश नीति में भटकाव, कश्मीर संकट, अटका सामाजिक एजेंडा, आंतरिक कलह, अनिर्णय और भ्रष्ट्राचार ने UPA को पंगु बना दिया है. जन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए आपको ज़ोरदार पहल करनी होगी.
जानता ने आपको जिस विश्वास के साथ जनादेश दिया, उससे यही लगता है कि आप अपना दूसरा कार्यकाल भी पूरा कर लेंगे. यदि संभव हुआ तो तीसरी बार भी सत्ता में आ जाएँ. लेकिन इस लंबे कार्यकाल का क्या फायदा. संसार में ऐसे कितने ही व्यक्ति हैं, जिसने सबसे लंबे समय तक जीवित रहने का रिकॉर्ड बनाया. इनके नाम गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में तो दर्ज है, पर लोगों कि जुबां पर नहीं है. वहीं स्वामी विवेकानंद अपने जीवन का 40वां बसंत भी नहीं देख पाए. भगत सिंह मात्र 23 वर्ष की उम्र में और खुदीराम बोस 19 वर्ष की उम्र में संसार से कूच कर गए. इनका नाम भले ही रिकॉर्ड बुक में दर्ज न हो, पर लोगों की जुबां पर है. कहने का आशय मात्र इतना है की जिंदगी लंबी नहीं बड़ी होनी चाहिए.
पुनः नए साल की हार्दिक शुभकामनाओं सहित.
आपकी सल्तनत का बाशिंदा.
शकील "जमशेद्पुरी"  
                        

2.1.11

पलकों से आसमां पर एक तस्वीर बना डाली.
उस तस्वीर के नीचे एक नाम लिख दिया;
फीका है इसके सामने चाँद ये पैगाम लिख दिया

सितारों के ज़रिये चाँद को जब ये पता चला
एक रोज़ अकेले में वो मुझसे उलझ पड़ा
कहने लगा कि आखिर ये माजरा क्या है
उस नाम और चेहरे के पीछे का किस्सा क्या है.

मैं ने कहा- ऐ चाँद क्यूं मुझसे उलझ रहा है तूं
टूटा तेरा गुरूर तो मुझ पर बरस रहा है तूं.
वो तस्वीर मेरे महबूब की है, ये जान ले तूं
तेरी औकात नहीं उसके सामने, यह मान ले तूं.

ये सुन के चाँद ने गुसे में ये कहा-
अकेला हूँ काइनात में, तुझे शायद नहीं पता.
लोग मवाजना करते हैं मुझसे अपनी महबूब का
चेहरा दिखता है मुझ में हरेक को अपनी माशूक का.

मैंने कहा- ऐ चाँद चल तेरी बात मान लेता हूँ,
पर तेरे हुस्न का जायजा मैं हर शाम लेता हूँ
मुझे लगता है आइना तुने देखा नहीं कभी.
एक दाग है तुझमें जो उस चेहरे मैं है नहीं.

यह सुन के चाँद बोला ये मोहब्बत कि निशानी है.
इसके ज़रिये मिझे नीचा न दिखाओ ये सरासर बेमानी है.
जिस शाम लोगों को मेरी दीद नहीं होती
अगले रोज़ तो शहर में ईद नहीं होती.

मैंने कहा ऐ चाँद, तू ग़लतफ़हमी का है शिकार.
सच्चाई ये है कि तूं मुझसे गया है हार.
एक रोज़ मेरा महबूब छत पर था और शाम ढल गयी.
अगले दिन शहर में ईद कि तारीख बदल गयी.
ये आखरी बात ज़रा ध्यान से सुनना.
हो सके तो फिर अपने दिल से पूछना.

यह एक हकीक़त है कोई टीका टिप्पणी नहीं है.
जिस चांदनी पे इतना गुरूर है तुझको,
वो रौशनी भी तो तेरी अपनी नहीं है.